Thursday, 20 July 2023

मणिपुर में आतंकियों के खिलाफ कड़ी सैन्य कार्यवाही की जाए

पिछले लगभग तीन माह से मणिपुर जल रहा है. लोगों के घर जलाये गए है, हत्याएं हुई है, लूटमार हुई है, महिलाओ के साथ बलात्कार हुआ है. जब तक दंगाई ये सब कर रहे थे विपक्ष खामोश बैठा था लेकिन जैसे ही सेना और पुलिस ने दंगाइयों पर कार्यवाही शुरू की है विपक्ष बिलबिलाने लगा है. मणिपुर के दंगापीड़ित लोग भी खुलकर सेना और पुलिस का साथ दे रहे है.

मणिपुर के दंगे और जातीय हिंसा को समझने के लिए वहां का सारा इतिहास और भूगोल भी समझना होगा. मणिपुर में अंग्रेजों के समय में जो जातीय भेदभाव शुरू किया गया था वह आजादी के बाद कम नहीं किया गया बल्कि उसे और बढ़ा दिया गया. मणिपुर में मुख्य रूप से तीन समुदाय है - मैतेई, कुकी और नगा. इसके अलावा रोहिंग्या और बांग्लादेशी भी वहां रहते है.
जिस तरह नेहरू सरकार ने कश्मीर में धारा 370 लगाकर और 35a लगाकर कश्मीरियों खासकर वहां के बहुसंख्यक मुसलमानो को विशेषाधिकार दे रखे थे और वे मुस्लमान उन विशेषधिकारो का इस्तेमाल हिन्दुओ के खिलाफ करते थे, वही स्थिति मणिपुर में है. यहाँ भी धारा 370 से लगभग मिलती जुलती धारा 371C है जिसका खामियाजा मैतेइयो को भुगतना पड़ता है.
आर्टिकल 371C के तहत मणिपुर की पहाड़ी जनजातियों को विशेष दर्जा और सुविधाएं मिली हुई हैं, जो मैतेई समुदाय को नहीं मिलती. 'लैंड रिफॉर्म एक्ट' की वजह से मैतेई समुदाय पहाड़ी इलाकों में जमीन खरीदकर बस नहीं सकता. जबकि जनजातियों पर पहाड़ी इलाके से घाटी में आकर बसने पर कोई रोक नहीं है. इससे दोनों समुदायों में मतभेद बढ़े हैं.
मणिपुर में ज्यादातर कुकी और नगा समुदाय के लोग ईसाई धर्म अपना चुके है. जबकि मैतेई लोग अपने आपको अर्जुन के पुत्र चित्रांगद (अर्जुन और चित्रांगदा का पुत्र ) का वंशज मानते है. कुकी और नगा अक्सर ही मैतियों पर हमले और अत्याचार करते रहते है. धारा 371C के कारण राज्य के 53% मैतेई राज्य की केवल 10% जमीन पर रहते है जबकि कूकी और नगा 90% भू भाग पर.
इस 90% पहाड़ी भूभाग पर रोहिंग्या और बांग्लादेशी जाकर रह सकते है लेकिन मैतेई वहां जाकर नहीं रह सकते. वर्तमान सरकार ने मैतेई समुदाय को भी ST घोषित कर दिया है और वह इन कुकियों और नागाओं से बर्दाश्त नहीं हो रहा है. मौजूदा तनाव की शुरुआत चुराचंदपुर जिले से हुई थी. ये राजधानी इम्फाल के दक्षिण में करीब 63 किलोमीटर की दूरी पर है.
इस जिले में कुकी ज्यादा हैं. गवर्नमेंट लैंड सर्वे के विरोध में 28 अप्रैल को द इंडिजेनस ट्राइबल लीडर्स फोरम ने चुराचंदपुर में आठ घंटे बंद का ऐलान किया था. देखते ही देखते इस बंद ने हिंसक रूप ले लिया. उसी रात तुइबोंग एरिया में उपद्रवियों ने वन विभाग के ऑफिस में आग लगा दी. इसके बाद 3 मई को ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ मणिपुर ने 'आदिवासी एकता मार्च' निकाला
ये मार्च मैतेइयो को एसटी का दर्जा देने के विरोध में था. इस मार्च के दौरान ही मैतेई समुदाय के घरों में भी आग लगाईं जाने लगी. उनके घरों को लूटा गया. उनकी महिलाओं की बेअदबी की गई. ये सब देखकर मैतेई भी आतंकियों से मुकाबला करने निकल पड़े. जब तक मैतेई मारे जा रहे थे कोई कुछ नहीं बोला लेकिन जब उन्होंने प्रतिकार शुरू किया तो सब बोलने लगे.
मणिपुर से आगजनी, हत्या, बलात्कार, आदि की खबर आने के बाद विपक्षी कभी ये नहीं कहते है कि अत्याचारियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही करो बल्कि केवल इतना कहते हैं कि वर्तमान सरकार इस्तीफ़ा दे. जैसे कि सरकार के इस्तीफ़ा देने से मणिपुर के आतंकी शांत हो जाएंगे. वहां तो ऐसी सैन्य कार्यवाही होनी चाहिए कि यहाँ विपक्षी आतंकियों के लिए रोते दिखाई दें
वैसे इस समय सेना / पुलिस आतंकियों के खिलाफ एक्शन में है इसीलिए विपक्ष इतना बिलबिला रहा है. वरना जब तक मैतेई मारे जा रहे थे तब तक ये खामोश थे. देश की जनता को भारत की सरकार, सेना और मैतेई लोगों का समर्थन करना चाहिए. कुकियों / नगाओं पर अगर कार्यवाही नहीं की गई, तो ये मैतेईयों का वही हाल करेंगे जो कश्मीर में हिन्दुओं का मुसलमानो ने किया था.
इसके अलावा नार्थ ईस्ट में ईसाई मिशनरियो की गतिविधियों पर भी नजर रखी जाए और अगर कोई आतंकियों का साथ देता पाया जाए तो उन पर भी कार्यवाही हो. बाक़ी रही बात विपक्ष की तो सबको पता है इसको लीड करने वालों ने ही पिछले सात दशक में नार्थईस्ट को शेष भारत से अलग रखकर वहां मिशनरियों को बढ़ावा दिया था और घुसपैठियों को बसाया था.

Tuesday, 4 July 2023

सर गंगाराम अग्रवाल

गंगा राम अग्रवाल का जन्म 22 अप्रेल 1851 में अविभाजित भारत के पंजाब प्रांत के ननकाना साहिब जिले के मंगताँवाला गांव में हुआ था. उनके पिता दौलत राम अग्रवाल मंगतांवाला में एक पुलिस स्टेशन में जूनियर सब इंस्पेक्टर थे. गंगा राम ने सरकारी हाईस्कूल से अपनी मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की और 1869 में लाहौर के सरकारी कॉलेज में शामिल हो गए.

1871 में, उन्होंने रुड़की के थॉमसन सिविल इंजीनियरिंग कॉलेज (अब आई आई टी रूड़की) से छात्रवृत्ति प्राप्त की. उन्होंने 1873 में स्वर्ण पदक के साथ अंतिम निचली अधीनस्थ परीक्षा उत्तीर्ण की. एक बार जब वह छुट्टियों में घर आय तो अपने पिता जी से पता चला कि अचानक एस पी साहब की पत्नी को लेबर पेन शुरू हो गया है और दाई ने हाथ खड़े कर दिए है.
एस पी साहब दौरे पर हैं. गंगा राम दौड़ते हुए पहुंच गया एस पी आवास, वहां से सरकारी जीप पर लेकर निकल पड़ा किसी डाक्टर की खोज में, लेकिन तब लाहौर में न डाक्टर था न अस्पताल. तब गंगाराम किसी तरह दूर से एक ज्यादा अनुभवी दाई को लेकर आये और उसकी कोशिश से किसी तरह जच्चा बच्चा दोनों की जान बच गई.
दूसरे दिन जब एस पी साहब लौटे तो उन्होंने गंगा राम का हाथ पकड़ कर कहा कि तुम्हारा एहसान कभी नहीं भुलूंगा, मैं तुम्हें कुछ देना चाहता हूं. गंगा राम ने कहा कि - सर जब आप जैसे अधिकारी को इतनी दिक्कत है तो समझिए कि आम जनता को कितना कष्ट होता है ? अगर मदद करना चाहते हैं तो यहां एक अस्पताल बना दीजिए.
एस पी साहब ने गंगाराम की इस मांग को ऊपर पहुंचाया और सरकार से इसकी मंजूरी मिल गए. उनको इस प्रोजेक्ट के लिए सरकारी सहायक अभियंता के रूप में नियुक्त कर दिया गया. हस्पताल को डिजाइन करने और निर्माण की देखरेख का काम भी गंगाराम को मिल गया. इस प्रकार लाहौर का पहला अस्पताल बन गया जो बाद में मेडिकल कॉलेज बना.
उसके बाद ब्रिटिश सरकार द्वारा उन्हें लाहौर का सौन्दर्यकरण करने की जिम्मेदारी दी गई. गंगा राम ने लाहौर में अनेकों स्कूल, कौलेज, चौक, चौराहे, बाजार, म्यूजियम, आदि को बनवाया. कुछ ही बर्षों में लाहौर को पूर्व का वेनिस कहा जाने लगा. उनकी योग्यता को देखते हुए उन्हें शाही असेंबली के निर्माण में मदद के लिए दिल्ली बुलाया गया.
उन्होंने जनरल पोस्ट ऑफिस लाहौर, लाहौर संग्रहालय, एचिसन कॉलेज, मेयो स्कूल ऑफ आर्ट्स (अब नेशनल कॉलेज ऑफ आर्ट्स), गंगा राम अस्पताल लाहौर, 1921, लेडी मक्लेगन गर्ल्स हाई स्कूल, मेयो अस्पताल के अल्बर्ट विक्टर विंग, सरकारी कॉलेज विश्वविद्यालय के रसायन विभाग का डिजाइन और निर्माण किया.
उन्होंने लाहौर के सर्वश्रेष्ठ इलाकों, सर गंगा राम हाई स्कूल, हैली कॉलेज ऑफ कॉमर्स, विकलांग के लिए रवि रोड हाउस, गंगा राम ट्रस्ट बिल्डिंग "द मॉल" और लेडी मेनार्ड इंडस्ट्रियल स्कूल के अलावा रेनाला खुर्द में पावरहाउस के साथ-साथ पठानकोट और अमृतसर के बीच रेलवे ट्रैक के बाद मॉडल टाउन और गुलबर्ग शहर का निर्माण किया.
उनकी इन उपलब्धियों को देखते हुए अंग्रेजी सरकार ने गंगा राम को सर की उपाधि दी. सेवानिवृत्ति के बाद वे पटियाला के पुनर्निर्माण परियोजना के लिए अधीक्षक अभियंता बन गए. लाहौर को पहचान देने वाले रचनाकार की याद में उनकी आदमकद मूर्ति उसी मेडिकल कॉलेज के प्रांगण में लगाई गई जो उनका पहला निर्माण कार्य था. 10 जुलाई 1927 को उनका स्वर्गवास हो गया.
वर्ष 1947 में भारत का विभाजन हुआ और पाकिस्तान एक नया देश बन गया. 15 अगस्त 1947 को आजादी के दिन लाहौर की सड़कों पर भीड़ उमड़ पड़ी. भीड़ जब सर गंगाराम अस्पताल के पास पहुंची तो एक मौलवी ने कहा कि चूंकि अब हमारा मुल्क एक इस्लामिक मुल्क है इसलिए यह मूर्ति यहां नहीं रह सकती है और भीड़ ने मूर्ति को तोड़ना शुरू कर दिया.
प्रसिद्ध उर्दू लेखक सादत हसन मंटो (जो उनके प्रसिद्ध व्यंग्य " टोबा टेक सिंह " के लिए जाने जाते हैं) ने 1947 के धार्मिक दंगों पर एक सच्ची घटना के आधार पर अपनी कहानी "गारलैंड" लिखी थी. उन्होंने उन जेहादियों पर लिखा था कि पाकिस्तान के अस्तित्व में आने के बाद वे लाहौर में किसी हिंदू की किसी भी स्मृति को खत्म करने की कोशिश कर रहे थे.
उस कहानी में उन्होंने लिखा था कि - लाहौर में एक आवासीय क्षेत्र पर हमला करके, वहां हिन्दुओं / सिक्खो का कत्लेआम करने के बाद, वह भीड़, लाहौर के महान हिंदू परोपकारी सर गंगा राम की मूर्ति पर हमला करने के लिए निकल पडी. उन्होंने पहले मूर्ति का मुँह कोयले से काला किया, फिर मूर्ति को जूते की माला पहनाई और फिर मूर्ति को गिरा दिया.
जैसे ही वह मूर्ति गिरी भीड़ ने चिल्लाया "चलो उसे सर गंगा राम अस्पताल भर्ती कराते है". लेकिन तब तक वहां पुलिस आ गई और उसने भीड़ को खदेड़ दिया और मूर्ति को कब्जे में कर लिया. जिन सर गंगाराम ने लाहौर को नहीं सूरत दी थी उन गंगाराम की मूर्ति को तोड़ने वालों में ऐसी भी बहुत लड़के थे जो उनके बनबाये उसी हस्पताल में पैदा हुए थे.
उसके बाद बहशियों की वह भीड़ गंगाराम के परिवार के सदस्यों को ढूंढने निकल पडी जिससे काफिरों का क़त्ल कर खुद को गाजी कहलवा सकें और जन्नत में सीट रिजर्व कर सके. तब पुलिस ने किसी तरह उनके परिवार को निकाल कर अमृतसर पहुंचाया. इस प्रकार विभाजन के बाद सर गंगा राम का परिवार भारत आ गया और पंजाब में बस गया.
उस समय के लाहौर के कलक्टर ने अपनी डायरी में लिखा था कि - कितनी नमकहराम कौम है ये जो अपनी जान बचाने वाले शख्स को भी नहीं बख्शती है. ऐसे लोगों का विनाश निश्चित है. भारत में भी सर गंगाराम का बहुत सम्मान था इसलिए जब 1951 में दिल्ली में एक बड़ा हस्पताल बनाया गया तो उसे सर गंगा राम के नाम पर समर्पित किया गया.
उनकी वह मूर्ति आज भी लाहौर में रही हुई है. दिल्ली में जब सर गंगाराम हस्पताल बनाया गया तो पाकिस्तान से आग्रह किया गया कि वह मूर्ति उन्हें देदे लेकिन पाकिस्तान ने मूर्ति देने से भी इंकार कर दिया. तब उनकी एक नई मूर्ति बनाकर दिल्ली के सर गंगाराम हस्पताल में स्थापित किया गया. कुछ लोग आज भी इस गलतफहमी में हैं कि इन लोगों को तृप्त किया जा सकता है

राजाराम जाट

औरंगजेब के जुल्म चरम पर थे, व्रज क्षेत्र में मंदिरों को तोड़ा जा रहा था, हिन्दुओं को धर्म छोड़ने पर मजबूर किया जा रहा था, हिन्दू पुरुषों को मारकर उनकी स्त्रीयों को जबरन उठाया जा रहा था. तब उस हैवान औरंगजेब को टक्कर देने के लिए एक जाट किसान "गोकुल सिंह" ने आगे बढ़कर औरंगजेब का मुकाबला करने का साहस किया.

गोकुल सिंह जाट (गोकुला जाट) ने जाटों, अहीरों और गूजरों को इकट्ठा कर औरंगजेब से टक्कर ली और कुछ समय के लिए ब्रज को औरंगजेब के आतंक से मुक्त करा लिया था. ग्रामीणों के इस विद्रोह को कुचलने के लिए औरंगजेब विशाल शाही सेना भेजी. गोकुला जाट के नेत्रत्व में 20,000 जाट, शाही सेना से मुकाबला करने निकल पड़े.
चार दिन चले इस युद्ध में जाटों ने मुघलों को भारी नुकशान पहुंचाया, लेकिन प्रशिक्षण, अनुशासन और युद्ध सामग्री की कमी के कारण जाटों को भी बहुत नुकशान हुआ. मुगल सेना ने 7000 जाटो को गोकुला व उसके चाचा उदयसिहँ सहित बँदी बना लिया. 1 जनवरी 1670 को औरंगजेब ने गोकुला और उसके चाचा को टुकड़े टुकड़े करके, शहीद कर दिया गया.
गोकुला के इस विद्रोह के बाद देश की दबी कुचली जनता में अभुतपूर्व साहस का संचार हुआ और उसके बाद देश के अन्य इलाकों में भी विद्रोह शुरु हो गए. गोकुला जाट के बलिदान बाद हिन्दुओं का नेतृत्व "राजाराम जाट'' सम्हाला. राजाराम जाट भरतपुर राज्य के राजा भज्जासिंह के पुत्र थे और सिनसिनवार जाटों के सरदार थे.
उन्होंने जाटों के दो प्रमुख क़बीलों "सिनसिनवारों" और "चाहर" को आपस में मिलाया. जाट योद्धा रामकी चाहर उनके साथ आ गए. जिससे उनकी ताकत बढ़ गई. आऊ नामक गाँव में मुघलों की छावनी थी जिसका अधिकारी था "लालबेग". लगभग 2,00,000 रुपये सालाना मालगुज़ारी वाले इस क्षेत्र में व्यवस्था बनाने के लिए एक चौकी बनाई गयी थी
एक दिन एक अहीर कहीं जा रहा था. वह अपनी पत्नी के साथ गाँव के कुएँ पर विश्राम के लिए रुका. लालबेग के एक कर्मचारी ने उस युवती के बारे में लालबेग को बताया तो लालबेग ने सिपाही भेजकर अहीर दम्पत्ति को चौकी पर बुलवा लिया. सुंदर स्त्री को देखकर वह कामातुर हो गया और उसने युवक को छोड़ दिया और उसकी पत्नी को अपने निवास पर ले गया
उस अहीर युवक ने यह बात अन्य राहगीरों को बताई. जब राजाराम को इस बात का पता चला तो उन्होंने ठान लिया कि महिलाओं की इज़्ज़त और धर्म को बचाने के लिए वह मुग़लों को सबक सिखा के ही रहेगा. उन्होंने अपना सैन्य बल तैयार किया और बार्षिक गोबरधन मेले के अवसर पर उस राक्षस लालबेग को मारने की यॊजना बनाई.
मेले में जानेवाली घास की बैल गाड़ियों में राजाराम अपने सिपाहियों के साथ छुप कर पहुंच गए. लालबेग को इस बात का अंदाज़ा भी नहीं था और उसने उन गाड़ियों को अंदर जाने की अनुमति देदी. चौकी को पार करते ही राजाराम और सिपाहियों ने गाड़ियों में आग लगा दिया. उसके बाद भयंकर युद्ध हुआ और उसमें लालबेग मारा गया.
इस युद्ध के बाद राजाराम ने अपने क़बीले को सुव्यवस्थित सेना बनाना प्रारम्भ कर दिया. अस्त्र-शस्त्रों से युक्त उसकी सेना अपने नायकों की आज्ञा मानने को हमेशा तय्यार रहती थी. राजाराम ने जंगलों में छोटी-छोटी क़िले नुमा गढ़ियाँ बनवादी. इन पर गारे की (मिट्टी की) परतें चढ़ाकर मज़बूत बनाया गया जिन पर तोप-गोलों का असर भी ना के बराबर था.
उसने मुगल शासन के खिलाफ खुला विद्रोह कर दिया. उसने धौलपुर से लेकर आगरा तक की यात्रा के लिए प्रति व्यक्ति से 200 रुपये लेना शुरू किया. इस एकत्रित धन को राजाराम अपने सैन्य को प्रशिक्षित करने में लगाता, जो मुग़लों को ढूंढ़-ढूंढ़ कर मारती थी. राजाराम की वीरता की बात औरंगज़ेब के कानों तक भी पहुंची.
उस समय औरंगजेब दक्षिण में गया हुआ था. उसने जाट- विद्रोह से निपटने के लिए अपने चाचा, ज़फ़रजंग को भेजा. राजाराम ने उसको भी धूल चटाई. उसके बाद औरंगजेब ने युद्ध के लिए अपने बेटे शाहज़ादा आज़म को भेजा लेकिन उसे वापस बुलाया और आज़म के पुत्र बीदरबख़्त को भेजा. बीदरबख़्त बालक था इसलिए ज़फ़रजंग को प्रधान सलाहकार बनाया.
बार-बार के बदलावों से शाही फ़ौज में षड्यन्त्र होने लगे. राजाराम ने मौके का फ़ायदा उठाया, 1688, मार्च में राजाराम ने सिकंदरा में मुघलों पर आक्रमण किया और 400 मुगल सैनिकों को काट दिया. औरंगज़ेब के अत्याचार, हिन्दू मन्दिरों के विनाश और मन्दिरों की जगह पर मस्जिदों का निर्माण करने से जनता के मन में बदले की भावना पनप चुकी थी.
इस कारण सभी आम हिन्दू राजाराम और उनकी सेना का साथ देने लगे. राजाराम की सेना के किसी भी सैनिक से मिलने पर उसे भोजन कराना आम हिन्दू अपना परम कर्तव्य मानने लगे थे. जनता का साथ मिलने से राजाराम का हौशला और बुलंद हो गया और उसने महावत खान के कैम्प पर हमला बोलकर करीब 200 मुगल सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया.
अब राजा राम संदेश देना चाहते थे कि उन्होंने गोकुल जाट की मौत का बदला ले लिया है. इसके लिए उन्हें मुगल खानदान से ही कोई चाहिए था, जिसका वो अपमान कर पाते. राजा राम ने अकबर के मकबरे सिकंदरा पर हमला बोल दिया. और उन्होंने अकबर और जहांगीर की कब्र खोदकर उसके अवशेष को आग में फिंकवा दिया.
राजाराम का अनुमान सही साबित हुआ, इस घटना से औरंगजेब झुंझलाकर रह गया. वो इतना बड़ा अपमान सहन नहीं कर पा रहा था. औरंगजेब ने काबुल में मौजूद सेनानायक राम सिंह को आगरा कूच करने और राजाराम को मौत के घाट उतारने का आदेश दिया. भारत का दुर्भाग्य देखिये कि राजा राम को मारने का इरादा करके राम सिंह आ रहा था.
लेकिन भगवान श्रीराम भी ऐसा नहीं होने देना चाहते थे इसलिए मथुरा पहुँचने से पहले ही राम सिंह की मौत हो गई. राजाराम ने मुग़लों के इलाकों में जमकर लूटपाट की एवं दिल्ली आगरा के बीच आवागमन के प्रमुख मार्गों को असुरक्षित बना दिया. आगरा के फौजदार शाइस्ता खान को हराकर आगरा पर एक तरह से कब्जा ही कर लिया.
इसी बीच राजस्थान में चौहानो और शेखावतों में लड़ाई शुरू हो गई और चौहानों ने राजाराम से मदद मांगी और राजाराम चौहानो की मदद की तो शेखावत उनके खिलाफ हो गए. मुगल ऐसे ही किसी मौके की तलाश कर रहे थे. राजाराम के हाथों हारे हुए बीदर बख्त ने बूंदी के राव राजा अनिरुद्ध सिंह, और महाराव किशोर सिंह हाडा के साथ शेखावतों से हाथ मिला लिया.
4 जुलाई 1688 को बीजल के युद्ध के समय चौहान और जाटों की संयुक्त सेना युद्ध को जीत रहे थे लेकिन तभी एक पेड़ के पीछे से एक मुगल सैनिक ने एक गोली चलाई जो सीधे राजाराम के सीने में उतर गई. जिससे राजाराम वीरगति को प्राप्त हो गए. औरंगजेब के आदेश पर मुग़लों ने राजाराम के ​सिर को काटकर दक्षिण में औरंगजेब के पास भेज दिया
इधर आगरा में भीड़ के सामने ही खुले में जाटों के दूसरे बड़े नेता रामकी चाहर को भी फांसी दे दी गई. ये मुगल साम्राज्य के खिलाफ आवाज उठाने वालों के लिए चेतावनी थी. लेकिन वो कहां मानने वाले थे. राजाराम के बाद मोर्चा संभाला उनके छोटे भाई चूड़ामन ने, जो कई सालों तक औरंगजेब और उसके बाद उसके वंशजों को भी छकाते रहे.