Sunday, 26 March 2023

अमृता देवी बिश्नोई का बलिदान

आज चिपको आंदोलन की बर्षगांठ है. आज के दिन 26 मार्च 1974 को उत्तराखंड के चमोली जिले के रैणी गाँव में गौरा देवी के नेतृत्व 27 महिलाओं ने पेड़ों से चिपक कर उनको बचाया था. इस घटना को चण्डी प्रसाद भट्ट और सुन्दर लाल बहुगुणा ने एक बहुत बड़ा आंदोलन बना दिया था. लेकिन बहुत से लोग नहीं जानते कि लगभग 200 साल पहले भी ऐसा हो चूका था.

सन 1787 में पेड़ों को बचाने के लिए पूज्यनीय अमृता देवी बिश्नोई के नेतृत्व में 363 अन्य बिश्नोईयो ने अपना बलिदान दिया था. सन 1787 में राजस्थान के मारवाड़ (आज का जेसलमेर और जोधपुर) में राणा अभयसिंह का राज था. वो अपने महरान गढ़ किले में "फूल महल" नाम से एक अलग से महल बनवा रहे थे. इसके लिए उनको लकडियो की जरुरत पड़ी.
उन्होंने अपने मंत्री गिरधारी दास भंडारी को सेना और लकड़हारे देकर किले से 24 किलोमीटर दूर खेजड़ली गाँव भेजा. जब राजा के आदेश पर राजा के सैनिको के संरक्षण में लकड़हारे "खेजलड़ी" गांव के समीप जंगल को काटने पहुंचे . जब विश्नोई समाज की महिला "अमृता देवी बिश्नोई" ने यह देखा तो वह पेड़ को बचाने की खातिर पेड़ से चिपक कर खड़ी हो गई.
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि विश्नोई समाज प्रकृति की पूजा करता है. मगर राजा के आदेश पर सैनिक ने उनकी गर्दन धड़ से उड़ा दी. इसे देखकर आसपास के अन्य लोग भी पेड़ों से चिपक गए थे. लेकिन राजा के सैनिको ने 363 लोगों का भी क़त्ल कर दिया. पर्यावरण की रक्षा के लिए अपने जीवन का बलिदान देने वाला ऐसा उदाहरण दुनिया में इसके अलावा कोई नहीं.
यह घटना 12 सितम्बर 1787 की है. सभी पर्यावरण प्रेमियों को यह दिवस बहुत ही श्रद्धा के साथ मनाना चाहिए. इसी घटना से प्रेरित होकर पिछली सदी में "गौरा देवी", "चंडी प्रसाद भट्ट" और "सुंदरलाल बहुगुणा" उत्तराखंड में "चिपको आंदोलन" को उत्तराखंड में खड़ा किया था. हम सभी को इस दिन कम से कम एक पेड़ का पौधा अवश्य लगाना चाहिए.
और हाँ, केवल पौधा लगाना ही नहीं चाहिए बल्कि उनकी रक्षा भी करनी चाहिए. जो लोग स्वयं पौधा नहीं लगा सकते उनको अन्य लोगो को पौधे भेंट करने तथा लगाए गए पेड़ों की सुरक्षा के लिए ट्री गार्ड दान करने के लिए आगे आना चाहिए. पेड़ हम सभी के जीवन के लिए कितना महत्वपूर्ण है यह तो हम सब जानते ही है .

चिपको आंदोलन

भारत में जब भी पर्यावरण संरक्षण की बात होती है तो 'चिपको आंदोलन' का नाम सबसे ऊपर लिखा नज़र आता है. यह मात्र एक आंदोलन नहीं था बल्कि प्रकृति को बचाने के लिए शुरू की गई क्रान्ति थी. इसकी शुरुआत उत्तराखंड के चमोली जिले के रैणी गांव में गौरा देवी के नेतृत्व में 27 महिलाओं द्वारा की गई थी. ये महिलाये पेड़ों को बचाने के लिए उनसे चिपक कर खड़ी हो गई थी.

दरअसल, 1973 की बात है जब इंदिरा गांधी की सरकार थी तब उत्तराखंड के चमोली में पेड़ों की नीलामी की गई और उनको काटने का ठेका दे दिया गया. गढ़वाल के पर्यावरण प्रेमी कार्यकर्ताओं ने उसका विरोध किया और यह काम रुक गया. सरकार उनको मानाने की कोशिश करती रही लेकिन पर्यावरण प्रेमी कार्यकर्ताओं ने उनकी बात मानने से मना कर दिया.
काफी समय तक यह मामला लटका रहने के बाद सरकार ने एक चाल चली. सरकार ने पर्यावरण कार्यकर्ताओं को वार्ता के बहाने गोपेश्वर में बुलाया. सरकार की चाल से अनजान गाँव के ज्यादातर पुरुष कार्यकर्ता, चण्डी प्रसाद भट्ट के नेतृत्व में सरकार से वार्ता करने गोपेश्वर चले गए. दूसरी तरफ सरकार ने पेड़ काटने वालों क बड़ा दल रैणी गाँव में भेज दिया.
सरकार की मनसा थी कि वहां पुरुष होंगे नहीं तो पेड़ काटने वालों का बड़ा दल एक ही दिन में ज्यादातर पेड़ों को काट देगा, उसके बाद जब कार्यकर्ता वहां पहुंचेंगे तो किसी भी तरह से उनको भी बहला लिया जाएगा. जैसे ही मजदूरों ने पेड़ काटने शुरू किये एक लड़की ने देख लिया और उसने भागकर गाँव में बताया कि बहुत सारे मजदूर पेड़ काटने आ गए हैं
तब गाँव की एक महिला गौरादेवी ने अपने गाँव की महिलाओं को इकठ्ठा किया और कटाई स्थल पर पहुँच गई और उन्होंने अधिकारियों और ठेकेदारों से कहा कि गाँव में पुरुष नहीं है और वो सरकार से बातचीत करने शहर गए हुए है जब वो आ जाए तो कल अपना काम करना. लेकिन वो तो इसी बहाने से पुरुषों को हटाकर पेड़ काटने वहां आये थे.
जब वो अधिकारी और ठेकेदार नहीं माने तो गौरा देवी और उनके साथ आई 27 महिलायें पेड़ों से चिपक गई और बोलीं कि पेड़ों को काटने से पहले तुम्हे हमको काटना होगा. इस पर ठेकेदार ने उनको बंदूकों से डराना चाहा लेकिन वे महिलायें नही मानी. उनके ऐसे प्रयासों को देखकर मजदूरों ने भी पेड़ काटने से मना कर दिया और ठेकेदार को वापस जाना पड़ा
शाम को पुरुष भी वापस आ गए और फिर अगले दिन चण्डी प्रसाद भट्ट ने गौरा देवी के प्रयास को बहुत बड़ा आंदोलन बना दिया. इस आंदोलन की शुरुआत चंडी प्रसाद भट्ट और गौरा देवी की ओर से की गई थी. इसके बाद प्रसिद्ध पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा ने आगे इसका नेतृत्व किया. इसके बाद तो दुनियाभर के बहुत से प्रभावशाली लोग इस आंदोलन से जुड़ गए.
इस आंदोलन का नतीजा यह रहा है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा हिमालयी वनों में पेड़ों की कटाई पर 15 साल के लिए रोक लगा दी. आज चिपको आंदोलन की बर्षगांठ है. सारी दुनिया के पर्यावरण प्रेमी चिपको आंदोलन के लिए गौरा देवी और उनकी साथी महिलाओं को आज याद करते हैं. इसके अलावा चंडी प्रसाद भट्ट और सुंदरलाल बहुगुणा को भी याद किया जाता है

देश के महापुरुषों का क्षेत्र, जाति और धर्म के नाम पर बंटवारा

बहुत ही दुःख की बात है कि आजकर देश के उन महापुरुषों का बंटवारा भी क्षेत्र, जाति और धर्म पर किया जाने लगा है, जिन महापुरुषों ने क्षेत्र, जाति और धर्म से ऊपर उठकर अपना सर्वस्व देश के लिए न्योछावर कर दिया था. आज अगर वे महापुरुष कहीं स्वर्ग से धरती पर देखते होंगे तो यह सब देखकर उनकी आत्मा निश्चित रूप से आहत होती होगी

जिन चंद्र शेखर आजाद ने अपना सरनेम "आजाद" बना लिया था उनको आज तिवारी बताया जाने लगा है, जिन राम प्रसाद ने अपना सरनेम विस्मिल रख लिया था उनको "तोमर" बताया जाने लगा है, जिन उधम सिंह ने अपना पूरा नाम ही राम मोहम्मद सिंह आजाद रख लिया था उनको आजकल उधम सिंह काम्बोज लिखकर उन्हें काम्बोज जाति का गौरब बताया जा रहा है.
इसी प्रकार भगत सिंह के साथ संधू, सुखदेव के साथ थापर, आदि लगाने पर जोर दे रहे हैं. राजगुरु को मराठी ब्राह्मण, सुभाष चंद्र बोस को कायस्थ गौरव, श्याम कृष्ण वर्मा को वर्माओ का महापुरुष, अशफाक उल्ला खान को मुसलमानो का प्रतिनिथि, विरसा मुंडा को वनवासी समुदाय का भगवान्, गांधी जी को गुजरातियों का नेता बताने का भी प्रयास हो रहा है.
कुछ महापुरुषों पर तो कई लोगों ने दावा कर रखा है जैसे भगत सिंह पर सिक्खों के अलावा जाट और आर्य समाजी भी दावा करते और पाकिस्तान के लोग भी उनको अपना बताकर उनपर भारतीयों के दावे को ख़ारिज करने लगते हैं. इसी प्रकार सुभाष चन्द्र बोस को लेकर बंगाल और उड़ीसा के लोग अपना अपना दावा करते भी दिखाई देते हैं ?
क्या ये महापुरुष किसी केवल एक क्षेत्र विशेष, जाति विशेष, किसी पार्टी विशेष या धर्म विशेष के महापुरुष हैं ? जी नहीं, ये सभी सारे देश के ही महापुरुष हैं और उनका जीवन सारे देश के लिए ही समर्पित था. इन्होने जो कुछ भी किया था किसी क्षेत्र विशेष, जाति विशेष या धर्म विशेष के लिए नहीं किया था बल्कि सारे देश के लिए किया था.
भगत सिंह लाहौर में रहते थे और जिस दल से जुड़े थे वह दल मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश का था. इस दल की स्थापना राम प्रसाद विस्मिल ने की थी, राम प्रसाद विस्मिल के बलिदान के बाद इसका नेतृत्व चंद्र शेखर आजाद ने सम्हाल लिया था. इस दल में पंजाब से सुखदेव, महाराष्ट्र से राजगुरु, बंगाल से योगेश चन्द्र चटर्जी, आदि प्रमुख क्रांतिकारी थे.
लुधियाना के रहने वाले हिन्दू महासभा के नेता लाला लाजपत राय पर जब अंग्रेजों ने लाठिया चलाई तो उनके बलिदान का बदला लेने के सारे देश के युवा उतावले हो गए थे और चंद्र शेखर आजाद के नेतृत्व में भगत सिह, सुखदेव, राजगुरु, आदि ने सांडर्स का वध कर दिया और जब इनको लाहौर से निकालना था तो दुर्गा भाभी उनको अपने साथ बंगाल ले गई.
अलग अलग पाटियों के लोग अलग अलग बिचार धारा के थे उसके बाबजूद वो एक दूसरे के रास्ते में रुकावट नहीं डालते थे बल्कि तमाम विरोधाभाष के बाबजूद एक दूसरे को सहयोग भी करते थे. लेकिन आज कुछ स्वार्थी लोग देश के इन महापुरुषों को जाति, धर्म, क्षेत्र, राजनैतिक विचारधारा, आदि के नाम पर बांटने में लगे हुए हैं.
जिन महापुरुषों ने देश के अलावा कुछ नहीं सोंचा उनका इस तरह से बँटबारा करना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है. और मैं एक बात और कहना चाहता हूँ कि जो लोग महापुरुषों का इस तरह से बँटबारा करते हैं, अगर उनके पुरखों का इतिहास निकालेंगे तो उनमे से ज्यादातर अंग्रेजों की नौकरी करने वाले कर्मचारी निकलेंगे या फिर अंग्रेजों के चापलूस जमींदार रहे होंगे.