Wednesday, 29 June 2022

शास्तार्थ में क्रोध उसी को आता है जो झूठ पर चल रहा होता है

भारत में शास्तार्थ (चर्चा)को बहुत महत्व दिया गया है. यहाँ हजारों साल से शास्तार्थ की परम्परा रही है. हमेशा विभिन्न बिषयों पर चर्चा होती रहती है और उस चर्चा से जो परिणाम प्राप्त होते हैं उनको आगे की चर्चा का आधार मानकर आगे फिर चर्चा होती है. इसी तरह चर्चा, प्रेक्षण, समीक्षा के द्वारा नए नए ज्ञान / विज्ञान की की खोज होती चली आई है.
भारतीय संस्कृति में हर तरह के बिचार को महत्त्व दिया जाता है. हर कोई अपने अलग बिचार रखने के लिए स्वतंत्र है, कोई भी यह नहीं कह सकता है कि जो वह करता है वही सबको करना पड़ेगा. किसी को भी कोई भी नियम जबरन मानने को बाध्य नहीं किया जाता. किसी भी तरह की जीवन शैली जीते हुए वह सनातन धर्म का हिस्सा रह सकता है.
अपने अपने बिचारों के समर्थन में तर्क और तथ्य अवश्य दे सकते हैं लेकिन दूसरों को उन्हें मानने के लिए बाध्य नहीं कर सकते. आस्तिक हो या नास्तिक, एकेश्वरवादी हो या बहुईश्वरवादी, मूर्तिपूजक हो या निराकार को मानने वाला, मांसाहारी हो या शाकाहारी, ग्रहस्त हो या ब्रह्मचारी, एक नारीव्रत हो या बहुविवाह समर्थक, इत्यादि किसी भी बिचारधारा पर चल सकता है.
भारत के किसी भी ज्ञानी, ऋषि, मुनि, महापुरुष, आदि ने कभी यह नहीं कहा कि जो मैं कह रहा हूँ वही अंतिम सत्य है और इसके आगे कुछ भी खोजा नहीं जा सकता. नई खोज के बाद जो बिचार अप्रासंगिक हो जाते हैं उनको लेकर भी किसी को अपमानित नहीं किया जाता है बल्कि यह कहा जाता है कि ऐसा उस काल में माना जाता था.
इसी प्रकार हजारो साल में लाखों विद्वानों ने समय समय पर अपनी खोजों और बिचारों से दुनिया को ज्ञान दिया. समस्या केवल तब पैदा हुई जब दुनिया में ऐसे कुछ विद्वान् आये जिन्होंने अपने फॉलोअर से कहा कि - मैं जो तुमको बता रहा हूँ, केवल वही अंतिम सत्य है और इस बिचार के अलावा अगर कोई कुछ कहता है तो वह हमारा दुश्मन है.
इस सोंच ने दुनिया को बहुत ज्यादा नुकशान पहुंचाया है. अलग अलग लोगों के अलग अलग बिचार होंगे ही और समय समय पर जब नई खोजें होंगी तो पुरानी सोंच को बदलना ही पड़ेगा. इसमें न किसी का कोई अपमान है और न ही किसी को किसी पर क्रोधित हों चाहिए. इन्ही चर्चाओं और समीक्षाओं से तो आगे और नया ज्ञान / विज्ञान खोजा जा सकता है.
शास्तार्थ में पराजित होना भी कोई अपमान जनक बात नहीं है क्योंकि इसी से नया ज्ञान मिलता है. यहाँ तो चर्चा और शास्तार्थ के समय क्रोधित हो जाने वाले व्यक्ति को, शास्तार्थ में पराजित माना जाता था. क्योंकि ऐसा माना जाता है कि जो व्यक्ति जानबूझकर की झूठ को सच साबित करने के लिए बहस करता है, उसको ही अपने झूठ की पोल खुलने पर क्रोध आता है.
इसलिए शास्तार्थ चलने रहने चाहिए और जो पुरानी बातें, नई खोजों के आने के बाद अप्रासंगिक हो जाए उन को मानने या मनवाने की जिद नहीं करनी चाहिए. आज हम जो जानते हैं कल उससे भी ज्यादा जानने को मिलेगा और हमारे आज के कई बिचार भी कल अप्रासंगिक हो जाएंगे इसलिए सभी को अपने बिचार रखने चाहिए लेकिन उनपर अड़ना नहीं चाहिए

Saturday, 4 June 2022

जिहाल ए मिश्कीन, मुकुन ब-रंजिश, बहाल ए हिजरा, बेचारा दिल है

 जिहाल ए मिश्कीन, मुकुन ब-रंजिश, बहाल ए हिजरा, बेचारा दिल है

सुनाई देती है जिसकी धड़कन , तुम्हारा दिल या हमारा दिल है : गुलामी


गुलामी फिल्म का यह गीत बहुत ज्यादा हिट हुआ था. इस गीत की पहली लाईन का सही उच्चारण बहुत ही कम लोग बोल पाते हैं, अर्थ समझना तो खैर बहुत ही मुश्किल है. मुझे लगा कि -इस पर पोस्ट लखी जाए.
यह गीत मूल रूप से अरबी / फारसी भाषा में अमीर खुसरो द्वारा लिखा गया है. लेकिन फिल्म में जो इसका भारतीयकृत हिन्दी रूप है वो गुलजार साहब ने लिखा है जिसको मिथुन चक्रवर्ती / अनीताराज / हुमाखान पर फिल्माया गया है.
इस गीत के बोल और भावार्थ तथा मूल गीत (अमीर खुसरो) भी प्रस्तुत है :-
जिहाल ए मिश्कीन, मुकुन ब-रंजिश, बहाल ए हिजरा, बेचारा दिल है
zihaal-e-miskeen mukon ba-ranjish, bahaal-e-hijra bechara dil hai
zihaal = notice
miskeen = poor
mukon = do not
ba-ranjish = with ill will, with enimity
bahaal = fresh, recent
hijra = separation
Thus the meaning is: Notice the poor (heart), and do not look at it (heart)
with enimity. It (heart) is fresh with the wounds of separation.
अर्थात -
ये गरीब (मजबूर) दिल, जुदाई के गमो से अभी तक ताजा है,
इसकी बेचारगी को बिना रंजिश के देखो.
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अमीर खुसरो का मूल गीत
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ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल
दुराये नैना बनाये बतियाँ
कि ताब-ए-हिज्राँ न दारम ऐ जाँ
न लेहु काहे लगाये छतियाँ
चूँ शम्म-ए-सोज़ाँ, चूँ ज़र्रा हैराँ
हमेशा गिरियाँ, ब-इश्क़ आँ माह
न नींद नैना, न अंग चैना
न आप ही आवें, न भेजें पतियाँ
यकायक अज़ दिल ब-सद फ़रेबम
बवुर्द-ए-चशमश क़रार-ओ-तस्कीं
किसे पड़ी है जो जा सुनाये
प्यारे पी को हमारी बतियाँ
शबान-ए-हिज्राँ दराज़ चू ज़ुल्फ़
वरोज़-ए-वसलश चूँ उम्र कोताह
सखी पिया को जो मैं न देखूँ
तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ

Friday, 3 June 2022

क्या मुसलमानो में वास्तव में जातिवाद नहीं है ?

मुसलमान अक्सर कहते हैं कि - उनके यहाँ कोई भेदभाव नहीं है जबकि वास्तविकता यह है कि इनके यहाँ इतने अधिक प्रकार के वर्गीकरण है और उनमे इतना भेदभाव है कि एक दूसरे से जातीय दंगा और जातीय नरसंहार तक कर देते हैं.

भारत में भी आपने कई बार शिया और सुन्नी के बीच दंगा होने की खबर कई बार सुनी होगी. इसके अलाबा ईराक और अफगानिस्तान में सुन्नियों के द्वारा लाखों शियाओं की हत्या की गई थी यह भी आपने टीवी और समाचार पत्रों में देखा ही होगा.
शिया और सुन्नी का भेद तो मात्र कुछ मान्यताओं को लेकर ही है लेकिन आर्थिक, सामाजिक और पेशे के आधार पर भी बहुत भेदभाव है. सामजिक प्रतिष्ठा के आधार पर मुसलमानो का अशराफ, अजलाफ और अरज़ाल में वर्गीकरण होता है.
अशराफ या शोरफा :- अशराफ का अर्थ होता है शरीफ या उच्च, इस शब्द का बहुवचन 'शोरफा' भी होता है. इसमें बाहर से भारत में आए हुए अरबी, ईरानी, तुर्की, सैयद, शेख, मुगल, मिर्जा, पठान आदि जातियां आती है, जो भारत में शासक भी रहीं हैं.
जिल्फ या अजलाफ :- जिलफ का अर्थ होता है -असभ्य. और जिल्फ का बहुवचन "अजलाफ" है. जिसमें अधिकतर शिल्पकार जातियां आती हैं. जैसे - दर्जी, धोबी, धुनिया, गद्दी, सब्जिफरोस ,बढई, लुहार, हज़्ज़ाम, जुलाहा, कबाड़िया, कुम्हार, मिरासी, आदि
रजील या अरज़ाल :- रजील का अर्थ होता है - नीच और इसका बहुवचन है अरज़ाल. इसमें तथाकथित छोटा काम करने वाली जातियां आती है. इसमें हलालखोर, भंगी, हसनती, लाल बेगी, मेहतर, नट, गधेरी आदि जैसी जातियां आती है.
अशराफ में वो लोग आते हैं जो अपने आपको अरब, ईरान, तुर्की, आदि बाहरी देशों से आया असली मुस्लमान मानते है. जिल्फ और रजील में भारतीय मूल की जातिया है जो हिन्दू से कन्वर्ट हुए हैं. इन दोनों को संयुक्त रूप से पश्मांदा भी कहा जाता है
भारत में जो मुस्लिम रहते हैं उनमे से लगभग 15 प्रतिशत "अशराफ" जो खुद को बाहर से आया हुआ असली मुस्लमान मानते है और लगभग 85% पसमांदा (अज़लाफ़ + रजील ) है जो भारतीय मूल के है लेकिन धर्म परिवर्तन कर मुसलमान बने थे
मुसलमनो में केवल यही दो प्रकार ( शिया सुन्नी और अशराफ पश्मांदा) के वर्गीकरण नहीं है. इनके बीच फिरकों के आधार पर, मान्यताओं (बरेलबी / देवबंदी), आदि के आधार पर, और भी कई प्रकार के वर्गीकरण हैं, जिसके कारण भी काफी भेदभाव है.
इसलिए यह कहना कि जातीय भेदभाव केवल हिन्दुओं में ही होता है सरसार झूठ है. भारत में बाहर से आये हुए "अशराफ" मुसलमनो के वंशज आज भी अपने आपको भारतीय मूल के पसमांदा (अज़लाफ़ + रजील ) मुसलमानो से श्रेष्ठ मानते हैं