Sunday, 24 April 2022

हिन्दुओं में शादियाँ रात को क्यों होती हैं ?



क्या कभी आपने सोंचा है कि हिन्दुओं में रात को शादियाँ क्यों होती हैं, जबकि हिन्दुओं में रात में शुभकार्य करना अच्छा नहीं माना जाता है ? रात को देर तक जागना और सुबह को देर तक सोने को, राक्षसी प्रव्रत्ति बताया जाता है. रात में जागने वाले को निशाचर कहते हैं. केवल तंत्र सिद्धि करने वालों को ही रात्री में हवन यग्य की अनुमति है.
बैसे भी प्राचीन समय में बिजली तो थी नहीं और न ही कृत्रिम रौशनी का ऐसा कोई अन्य साधन था जिसकी रोशनी का आनंद उठाने के लिए रात में फंक्शन किया जाता हो. तब हिन्दुओं में रात की शादी की परम्परा कैसे पडी ? कभी हम अपने पूर्वजों के सामने यह सवाल क्यों नहीं उठाते हैं या खुद इस सवाल का हल नहीं खोजते हैं ?
दरअसल भारत में सभी उत्सव एवं संस्कार दिन में ही किये जाते थे. सीता और द्रौपदी का स्वयंवर भी दिन में ही हुआ था. प्राचीन काल से लेकर मुघलों के आने तक भारत में विवाह दिन में ही हुआ करते थे . मुस्लिम आक्रमणकारियों के भारत पर कब्जे के बाद ही, हिन्दुओं को अपनी कई प्राचीन परम्पराएं तोड़ने को मजबूर होना पडा था .
भारत पर मुस्लिम आक्रमणकारियों का कब्जा हो जाने के बाद भारतीयों पर बहुत अत्याचार हुए. यह आक्रमणकारी हिन्दुओं के विवाह के समय वहां पहुचकर लूटपाट मचाते थे. अकबर के शासन काल में, जब अत्याचार चरमसीमा पर थे, मुग़ल सैनिक हिन्दू लड़कियों को बलपूर्वक उठा लेते थे और उन्हें अपने आकाओं को सौंप देते थे.
भारतीय ज्ञात इतिहास में सबसे पहली बार रात की शादी सुन्दरी और मुंदरी नाम की दो ब्राह्मण बहनों की हुई थी जिनकी शादी दुल्ला भट्टी ने अपने संरक्षण में ब्राह्मण युवकों से कराई थी. उस समय दुल्ला भट्टी ने अत्याचार के खिलाफ हथियार उठाये थे. दुल्ला भट्टी ने ऐसी अनेकों लड़कियों का मुघलों से छुडाकर, उनका हिन्दू लड़कों से व्याह कराया
उसके बाद मुस्लिम आक्रमणकारियों के आतंक से बचने के लिए हिन्दू रात के अँधेरे में शादियाँ करने लगे. लेकिन रात्री में शादी करते समय भी यह ध्यान रखा जाता है कि - नाच -गाना, दावत, जयमाल, आदि भले ही रात्रि में होजाए लेकिन वैदिक मन्त्रों के साथ फेरे प्रातः पौ फटने के बाद ही हों.पंजाब से शुरू हुई परंपरा को पंजाब में ही ख़तम किया गया .
फिल्लौर से लेकर काबुल तक महाराजा रंजीत सिंह का राज हो जाने के बाद उनके महान सेनापति हरीसिंह नलवा ने, मुघलों के भय को समाप्त कर दिन में खुले आम शादियाँ करने और उनको सुरक्षा देने का ऐलान किया था. हरीसिंह नलवा के संरक्षण में हिन्दुओं ने दिनदहाड़े - बैंडबाजे के साथ विवाह शुरू किये.
तब से पंजाब में फिर से दिन में शादी का प्रचालन शुरू हुआ. पंजाब में ज्यादातर शादियाँ आज भी दिन में ही होती हैं. हरीसिंह नलवा ने हिन्दुओं को सुरक्षा दी, मंदिरों का पुनरुद्धार किया, मुस्लमान बने हिन्दुओं की घर वापसी कराई, मुसलमानों पर जजिया कर लगाया और प्राचीन परम्पराओं को फिर से स्थापित किया

सन्त कबीर दास जी की मृत्यु कहाँ और कैसे हुई ?

संत कबीर दास जी की मृत्यु कैसे हुई, इसको लेकर दो तरह की बातें कही जाती है. पहली यह कि- वे अपनी मृत्यु से पहले मगहर चले गए थे. अपने अंतिम समय में एक दिन वे चादर ओढ़ कर सो रहे थे. जब भक्तों ने चादर हटाई तो देखा वहां कबीर नहीं थे बल्कि कुछ फूल पड़े थे. उनके शिष्यों ने वो फूल आपस में बाँट लिए और उनका अंतिम संस्कार कर दिया.

हिन्दुओं के उन फूलों का अग्नि संस्कार कर दिया तथा मुसलमानों ने उन फूलों को दफनाकर वहां उनकी मजार बना दी. जबकि दुसरी कथा यह है कि - सिकंदर लोधी ने उनके सर को हाथी से कुचलवाकर उनकी हत्या की थी. कबीर दास जी के फूल बन जाने की कथा को इतिहास में मान्यता प्राप्त है जबकि ऐसी बातों को तो, खुद कबीर भी नहीं मानते थे.
कबीर दास जी ने जीवन भर आडम्बरों का बिरोध किया. वे चमत्कारों में कतई विश्वास नहीं करते थे. मगर उनकी मृत्यु के बाद खुद कबीर के अनुयायियों ने संत कबीर को एक चमत्कारी पुरुष से लेकर भगवान् तक घोषित कर दिया. यदि कबीर दास जी जीवित होते और उनके सामने किसी और की कोई ऐसी कहानी बताई जाती, तो वे उस पर कभी विशवास नहीं करते.
संत कबीर दास जी 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे. वे हिन्दी साहित्य के भक्तिकालीन युग में ज्ञानाश्रयी-निर्गुण शाखा की काव्यधारा के प्रवर्तक थे. इनकी काव्य रचनाओं ने हिन्दी भाषी प्रदेश के भक्ति आंदोलन को काफी गहराई तक प्रभावित किया. था. स्वामी रामानंद को उन्होंने अपना गुरु धारण किया हुआ था.
कबीर पढ़े लिखे नहीं थे लेकिन संतों की संगत और लोगों के जीवन का बारीकी अध्यन करने के कारण उनको असीम ज्ञान प्राप्त हो गया था. उनकी रचनांओ में निराकार ब्रह्म और गुरु की महिमा का बहुत वर्णन है. इसके अलावा उनके दोहे, सामान्य जीवन में सच बोलने, गुरु पर विशवास करने और अच्छे काम करने की शिक्षा देते है.
इसके अलावा उन्होंने धार्मिक आडम्बरों के खिलाफ भी बहुत बोला तथा लोगो को इससे बचने की सलाह दी. अनेकों हिन्दू और मुसलमान उनके शिष्य बन गए लेकिन इन बातों से हिन्दुओं और मुसलमानों के अनेकों तथकथित धर्मगुरु उनसे नाराज भी रहने लगे थे. हालांकि हिन्दू जनता ने उन तथाकथित हिन्दू धर्मगुरुओं की बातों पर ध्यान नहीं दिया.
एक बार दिल्ली के सुलतान सिकंदर लोधी का काशी आगमन हुआ. मुल्ला मौलवियों ने राजा के पास कबीर की शिकायत करते हुए कहा कि - वो काफिर जुलाहा लोगों को भड़काता है. अगर वह यूं ही ये सब करता रहा तो नए लोग तो इस्लाम कबूलना बंद करेंगे ही, हो सकता है पहले से इस्लाम कबूल चुके लोग भी इस्लाम को छोड़कर काफिर बन जाएँ.
तब सिकंदर लोधी ने कबीर को दरबार में हाजिर होने का आदेश दिया, परन्तु कबीर दरबार में नहीं गए. इस पर नाराज होकर सिकंदर लोधी ने कबीर की माता नीमा को पकड़कर लाने का आदेश जारी कर दिया. तब अगले दिन कबीरदास जी तुलसी माला पहनकर, चंदन लगाकर और पगड़ी बांधकर, सुलतान के दरबार में जाने के लिए निकल पड़े.
सिकंदर ने कबीर से कहा कि - मेरे आदेश पर तुम दरबार में क्यों नहीं आये, तो कबीर ने कहा - ''हमारा बादशाह राम (निराकार ब्रह्म) है". इसपर सिकंदर लोधी आगबबूला हो गया. उसने कबीर से इस्लाम कबूलने और कुरआन की शिक्षाओं को अपने दोहों के रूप में लिखने को कहा. लेकिन कबीर ने इससे इनकार कर दिया.
तब सिकंदर लोधी ने कबीर को दर्दनाक मौत देकर मारने की सजा सुनाई. कबीर के सर को हाथी के पैर के नीचे कुचलकर मारने का आदेश दिया गया. कुछ लोगों ने राजा को सलाह दी कि - काशी में कबीर के बहुत शिष्य हैं अगर यहाँ ऐसे सजा दी तो प्रजा बगावत भी कर सकती है. तब यह तय हुआ कि - कबीर को मगहर लेजाकर सजा दी जायेगी.
कबीर की पत्नी "लोई" और पुत्र "कमाल' रोने लगे और राजा से विनती की कि- आप जो कहोगे हम वो करेंगे लेकिन "कबीर" को माफ़ कर दें. लेकिन कबीर ने राजा से कहा-
माली आवत देखिकर, कलियन करी पुकार।
फूले फूले चुन लिए, काल्हि हमारी बार।
(अर्थात - 'मुझे तो मरना ही था; आज नहीं मरता तो कल मरता, लेकिन सुलतान कब तक इस गफलत में भरमाए पड़े रहोगे कि - वह कभी नहीं मरेंगे?)
कबीर को जंजीर से बांधकर मैदान में डाल दिया गया. वहां मौजूद काजी ने कबीर से कहा कि - कुछ ही क्षणों में तुम्हारी मौत हो जायेगी लेकिन अगर तुम इस्लाम कबूल कर लो, तो तुम्हारी सजा माफ़ हो जायेगी साथ ही तुमको जिन्दा पीर घोषित कर दिया जाएगा. कबीर के इनकार करने पर, काजी ने महावत को आगे बढ़ने का आदेश दे दिया.
लेकिन हाथी जब कबीर के पास पहुंचा तो कबीर के सामने आदरभाव से बैठ गया. तब हाथी को क्रोधित करने के लिए महावत ने उसके सिर पर चोट मारी, लेकिन हाथी आगे बढ़ने के बजाय, चिंघाड़कर विपरीत दिशा में भागने लगा.इस पर नाराज होकर काजी ने महावत से कहा कि- मैं तुझे छड़ी से पीटूंगा और तेरे इस हाथी को कटवा डालूंगा.
तब महावत ने किसी तरह हाथी को काबू कर, सजा को पूरा कराया. सरकारी इतिहास में यह लिखा गया है कि- कबीर दास जी चादर ओढ़कर लेटे जब उनकी चादर हटाई गई तो देखा वहां कुछ फूल पड़े हुए थे. उनके शिष्यों ने फूल आपस में बाँट लिए. हिन्दुओं ने फूलों का अग्नि संस्कार कर दिया और मुसलमानों ने उन्हें दफना दिया.
जो कबीर दास जिन्दगी भर चमत्कार और आडम्बरों का बिरोध करते रहे, उन कबीर दास जी की म्रत्यु को ही एक चमत्कार बना दिया गया और उनके कुछ तथाकथित अनुयायियों ने उन्हें भगवान् कहकर पूजना शुरू कर दिया. जो कबीर मजार पूजा के खिलाफ थे उन्ही कबीर की मजार बनाकर वहां मजार पूजन किया जाने लगा.
कबीर को जिस समय हाथी के पैरों तले कुचलवाया जा रहा था, उस समय कबीर का एक शिष्य भी वहां मौजूद था, उसने उस घटना का वर्णन इस प्रकार से किया है.
अहो मेरे गोविन्द तुम्हारा जोर, काजी बकिवा हस्ती तोर।
बांधि भुजा भलैं करि डार्यो, हस्ति कोपि मूंड में मार्यो।
भाग्यो हस्ती चीसां मारी, वा मूरत की मैं बलिहारी।
महावत तोकूं मारौं सांटी, इसहि मराऊं घालौं काटी।
हस्ती न तोरे धरे धियान, वाकै हिरदै बसे भगवान।
कहा अपराध सन्त हौ कीन्हा, बांधि पोट कुंजर कूं दीन्हा।
कुंजर पोट बहु बन्दन करै, अजहु न सूझे काजी अंधरै।
तीन बेर पतियारा लीन्हा, मन कठोर अजहूं न पतीना।
कहै कबीर हमारे गोब्यन्द,
चौथे पद में जन का ज्यन्द

Wednesday, 20 April 2022

एकलव्य ने जो किया था वह अगर कोई आज करे तो उसका क्या हाल होगा ?

महाभारत काल में हस्तिनापुर और मगध दो शक्तिशाली दुश्मन राज्य थे. उस समय अनेकों छोटे राज्य थे जिनमे से कोई हस्तिनापुर से मित्रता रखता था और तो कोई मगध से.
हस्तिनापुर के राजा थे धृतराष्ट्र जो पितामह भीष्म के निर्देशन में राज करते थे और मगध का राजा था जरासंध.

जरासंध इतना शक्तिशाली राजा था कि उसके कारण भगवान् श्रीकृष्ण को भी मथुरा छोड़कर जाना पड़ गया था. उस जरासंध सेना का प्रधान सेनापति था "हिरण्यधनु". उस हिरण्यधनु का पुत्र था "एकलव्य"

द्रोणाचार्य का गुरुकुल हस्तिनापुर का प्राइवेट गुरुकुल था. यह कोई साधारण गुरुकुल नहीं था बल्कि सैन्य शिक्षा देने वाला स्कूल था जिसमे साधारण हथियारों से लेकर दिव्यास्त्रों तक को चलाने का प्रशिक्षण दिया जाता था.
जहाँ हस्तिनापुर के राजकोष से चलने वाले द्रोणाचार्य के इस गुरुकुल में हस्तिनापुर राज घराने के बच्चों के अलावा केवल द्रोणाचार्य का बेटा अश्वत्थामा ही पढता था. इस सौनिक स्कूल में छुपकर एकलव्य उनकी कार्यवाहियों को देखता था.
उसके बाद वह वहां से कहीं दूर जंगल में जाकर अभ्यास करता था. वहां उसने द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाकर रखी थी जिससे उसे यह अहसास रहे कि वह अपने गुरु के सामने है. इस तरह से अभ्यास करके उसने बहुत कुछ सीख लिया.
अगर आपको आज यह पता चले कि पाकिस्तान या चीन का कोई सैनिक भेष बदलकर भारत के सैनिक स्कूल में जाता है या वो भारत के दिव्यास्त्रों (मिसाइल, एटम बम, एयरक्राफ्ट, आदि) की जानकारी हाशिल कर रहा है, तो क्या होगा ?
इसी प्रकार जब एकलव्य की सच्चाई गुरु द्रोणाचार्य के सामने आई तो उन्होंने उसका अंगूठा कटवा दिया. यह उन्होंने जबरन न करवा कर उसको बातों में उलझाकर खुद उसके ही हाथों कटवा दिया. यह कोई जातीय भेदभाव का मामला था ही नहीं.
यह तो द्रोणाचार्य की हस्तिनापुर के प्रति बफादारी थी. उन्होंने मगध के प्रधान सेनापति के बेटे को सरकार को सौंपने के बजाय खुद ही फैसला कर दिया और उसे जाने दिया. एक तरह से उन्होंने हस्तिनापुर के दुश्मन को प्यार से सजा दे दी थी.
जब वह वापस मगध पहुंचा तो उसका मगध में स्वागत हुआ. मगध के राजा जरासंध ने एकलव्य को अपने साम्राज्य के अधीन एक छोटे राज्य श्रृंगबेर का राजा बना दिया. जब मगध की मथुरा से लड़ाई हुई तो एकलव्य ने मगध की ओर से युद्ध में हिस्सा लिया
एकलव्य ने अपनी चार उँगलियों से वाण चलाकर अकेले ही सैकड़ों यादव योद्धाओं का वध कर दिया था. उसके बारे में जानकार खुद श्रीकृष्ण उससे युद्ध करने पहुंचे, उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ था, तब कृष्ण ने खुद एकलव्य का वध किया था.
जब महाभारत का युद्ध हुआ था तब दुर्योधन ने एकलव्य के बेटे केतुमान को श्रीकृष्ण के खिलाफ भड़काकर अपने साथ मिला लिया था. उस समय केतुमान ने भी द्रोणाचार्य के नेतृत्व में पांडवों से युद्ध किया था. अर्थात उसे भी द्रोणाचार्य से कोई शिकायत नहीं थी.
अब जरा यह सोंचिये कि एकलव्य ने जो किया था वह अगर कोई आज करे तो उसका क्या क्या काटा जा सकता है ? मैकाले और वामपंथियों की बातों में मत आओ अपनी अकल लगाओ.

जिस एकलव्य को वामपंथी इतिहास कार दलित, कमजोर और निःसहाय आदिवासी बताते है वह एकलव्य वास्तव में हस्तिनापुर के सबसे बड़े शत्रु मगध के प्रधानसेनापति (Chief of Armed forces ) हिरण्यधनु का पुत्र था, जो किसी भी तरह से हस्तिनापुर की शक्ति का पता लगाना चाहता था

चोरी से दूसरे देश का सैन्य विज्ञान सीखना आज भी एक बड़ा अपराध माना जाता है. ऐसे अपराध के लिए गर्दन तक काटी जा सकती है जबकि आचार्य ने तो दया दिखाते हुए केवल विद्या का दुरुपयोग रोकने भर की सजा दी. बाक़ी अगर केवल मूर्ति के सामने अभ्यास करने से विद्या आ सकती थी तो वह मगध के जंगल में जाकर मूर्ति बना लेता, आचार्य द्रोण के आश्रम के पास के जंगल क्यों छिप कर रहता था ?