Thursday, 20 January 2022

अमर जवान ज्योति को बुझा दिया जाएगा : कांग्रेसियो का कुप्रचार

1971 में हुए भारत पापिस्तान युद्ध की बर्षगांठ की स्वर्ण जयंती पर, मोदी सरकार ने एक भव्य युद्ध स्मारक राष्ट्र को समर्पित किया है. 2019 में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय समर स्मारक का उद्घाटन किया था, तब यह निर्णय लिया गया था कि- भारत के देशभक्त और वीर सैनिको के सम्मान में "अमर जवान ज्योति" अब यहीं जलाई जायेगी.

नया राष्ट्रीय समर स्मारक उन सैनिकों और गुमनाम नायकों की याद में बनाया गया था जिन्होंने आजादी के बाद से देश की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहुति दे दी है. नया स्मारक कहीं दूसरे शहर में नहीं बनाया गया है बल्कि इंडिया गेट परिसर में ही 40 एकड़ में फैला हुआ है. इसकी दीवारों पर भारत के लिए लड़ते हुए वीरगति पाने हुए सैनिकों के नाम लिखे हैं.
जबकि इण्डिया गेट अंग्रेजों के द्वारा बनबाया हुआ स्मारक है, इसको अंग्रेजों ने प्रथम विश्वयुद्ध के बाद "इंग्लैण्ड" के लिए लड़ने वाले 80,000 सैनिको की याद में बनबाया था. यह स्मारक 1931 में बनकर तैयार हुआ था. वहां अंग्रेजों के 13,300 सैनिको के नाम लिखे हैं जिनमे लगभग 4,300 अंग्रेज अफसरों और सैनिको के नाम हैं.
इनमें से जो सैनिक भारतीय मूल के भी हैं, वो भी कोई भारत की स्वाधीनता की लड़ाई नहीं लड़ रहे थे, बल्कि वो तो अपने मालिको के लिए, अपने मालिकों के दुश्मनों से लड़ रहे थे. ये वो भारतीय मूल के अंग्रेज सैनिक थे, जिन्हें अपने अंग्रेज मालिको के इशारे पर, अपने भारतीय भाइयों पर भी गोली चलाने में हिचक नहीं होती थी.
इसके सामने जो छतरी लगी है उसमें तत्कालीन अंग्रेज राजा जार्ज पंचम की मूर्ति लगी हुई थी. इसके सामने का रास्ता "किंग्स वे - अर्थात राजा का पथ" कहलाता था. जिनका नाम बाद में बदलकर "राजपथ" कर दिया गया. आजादी के दिल्ली की जनता ने मांग की कि - वहां से जार्ज पंचम की मूर्ति को हटाया जाए, मगर नेहरु इसके लिए तैयार नहीं थे.

नेहरु का मानना था कि ऐसा करने से अंग्रेज नाराज हो सकते हैं, क्योंकि 15 अगस्त 1947 में आजादी मिलने के बाबजूद, 15 जनवरी 1949 तक, सेना का नियंत्रण अंग्रेजों के पास ही था. तब दिल्ली के राष्ट्रवादी लोगों ने इसको हटाने के लिए जबरदस्त अभियान चलाया, फिर जाकर नेहरु को मजबूर होकर मूर्ति को "कोरोनेशन पार्क" में स्थानांतरित करना पड़ा.
1972 में इण्डिया गेट पर अमर जवान ज्योति की स्थापना की गई थी. यह ज्योति 1971 का युद्ध लड़ने वाले सैनिको को समर्पित थी. अब नया युद्ध स्मारक बन गया है जो भारत के लिए युद्ध लड़ने वाले सैनिको के लिए समर्पित है. इसलिय अमरजवान ज्योति को भी अंग्रेज सैनिको के स्मारक से हटाकर भारतीय सैनिको के स्मारक में स्थानांतरित कर दिया गया है.

नए राष्ट्रीय युद्ध स्मारकमें जो अमरजवान ज्योति लगाईं गई है, उसको जलाने के लिये भी अग्नि , पुरानी वाली अमरजवान ज्योति से ही ले जाई गई है. मेरे इस लेख के साथ डाले गए फोटो में भी यह स्पष्ट दिख रहा है कि अमर जवान ज्याति भी बनाई गई है और दुसरे फोटो में यह भी स्त्पष्ट दिखाई दे रहा है कि - यह इण्डिया गेट के पास ही में है

Monday, 17 January 2022

अहमदशाह अब्दाली के 7 आक्रमण

अहमद शाह अब्दाली का जन्म 1722 में अफगानिस्तान के हेरात में हुआ था. वह जालिम बादशाह नादिर शाह का एक सैन्य अधिकारी था. 1748 में नादिर की मौत हो जाने के बाद वह उसका उत्तराधिकारी बन बैठा और आंतरिक संघर्ष में विजयी होकर अफगान का शाह बन गया. अब्दाली ने 1748 से लेकर 1767 तक भारत पर सात बार आक्रमण किये.

अब्दाली ने पहला आक्रमण 1748 मे, दूसरा आक्रमण 1749 में और तीसरा आक्रमण 1753 में किया था. उसने ये तीनो आक्रमण भारत की तत्कालीन मुग़ल सत्ता पर अपना प्रभुत्व बनाने के लिए, मुगल सत्ता के खिलाफ किये गए थे. 1748 वाला पहला आक्रमण असफल हो गया था. 1749 वाले दूसरे आक्रमण में पंजाब का गवर्नर 'मुईन उल मुल्क' परास्त हुआ.
इसके बाद 'इमाद उल मुल्क' ने अब्दाली को नियमित पैसा (कर) देना स्वीकार कर लिया. शुरू में तो वह अब्दाली को नियमित रूप से कर देता रहा लेकिन फिर वह कर देने में गड़बड़ करने लगा. तब अब्दाली ने 'इमाद उल मुल्क' को सबक सिखाने के लिए 1753 में तीसरा आक्रमण किया. और अपने लोगों को महत्वपूर्ण स्थानों पर बिठाया.
अब्दाली ने चौथा आक्रमण 1757 में किया. इस आक्रमण में उसने सबसे ज्यादा तवाही मचाई थी. अफगानिस्तान से लेकर दिल्ली तक उसे किसी ने नहीं रोका. दिल्ली के बाद बल्लभगढ़ से लेकर आगरा तक केवल जाटों और नागा साधुओं ने ही अब्दाली का सामना किया था. इस हमले उसमे मंदिरों का विध्वंस किया, लूटमार की और औरतों को गुलाम बनाया.
इन आक्रमणों के समय उसे काबुल से दिल्ली तक किसी ख़ास प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा. जबकि इन हमलो के बारे में जानकार महाराष्ट्र के हिन्दू (मराठे) बेचैन हो गए. अब्दाली के वापस जाने के बाद 1958 में "राघो बा" के नेतृत्व में मराठे उत्तरभारत में आये और स्थानीय राजाओं और सरदारों का साथ लेकर मुस्लिम राजाओ और नबाबो को परास्त किया.
मराठों की बढ़ती ताकत से परेशान होकर उत्तर भारत के मुस्लिम नबाबो और राजाओं ने फिर अब्दाली को बुलाया और कहा कि- औरंगजेब के बाद अब आप ही हैं जो काफिरों से हमारी हिफाजत कर सकते हैं और हिन्दुस्थान में इस्लाम के परचम को बुलंद रख सकते हैं. उनके बुलाने पर 1760 के आखिर में अब्दाली फिर भारत पर पांचवा हमला करने निकल पड़ा.
जब मराठों को इसकी खबर लगी तो वो भी उसे रोकने के लिए निकल पड़े. लेकिन जहाँ उत्तर भारत के ज्यादातर सभी मुस्लिम राजा, नबाब और जागीरदार अब्दाली का साथ देने को तैयार हो गए, वहीँ उत्तर भारत के हिन्दुओं और सिक्खों ने मराठों का साथ नहीं दिया. साथ देना तो दूर उनको खाना, कपडा और सुरक्षित रहने के लिए कोई किला तक उपलब्ध नहीं कराया.
1761 में जब आया था तो मराठों ने पानीपत में अब्दाली को कड़ी टक्कर दी थी. मराठे तो महाराष्ट्र से चलकर पानीपत तक आ गए थे लेकिन स्थानीय लोग इस लड़ाई से दूर रहे. उन्होंने अब्दाली से लड़ना तो दूर मराठों की कोई मदद तक नहीं की. पानीपत के इस युद्ध में मराठों की हार हुई और अब्दाली ने एक बार फिर तबाही मचाई और लूटमार की और वापस चला गया.
1762 में अब्दाली ने छठा हमला किया. इस बार उसे मुसलमानो ने नहीं बल्कि जंडियाला के सिक्ख महंत आकिल दास ने बुलाया था. इसका कारण यह था कि - जंडियाला का महंत आकिल दास कहने को तो सिक्ख था लेकिन था वह अब्दाली का आदमी. उसको सबक सिखाने के लिए सरदार जस्सासिंह आहलूवालिया ने जंडियाला में घेरा डाल दिया था.
तब महंत आकिल दास ने अपनी मदद करने के लिए अब्दाली को बुलाया. अब्दाली के आने की खबर सुनते ही सरदार जस्सासिंह आहलूवालिया ने जंडियाला से घेरा उठा लिया गया और सतलुज पार चले गए. लेकिन अब्दाली ने उनका पीछा किया. मलेरकोटला के नबाब भीखम खान और सरहन्द के नबाब जैनखान ने अब्दाली का साथ दिया.
5 फरवरी 1762 को मलेरकोटला के पास "कुप्प" में अब्दाली, भीखम खान और जैनखान की सेनाओ ने सिक्खों को तीन तरफ से घेर लिया.सिक्ख बहुत बहुत बहादुरी से लड़े लेकिन तीन विशाल सेनाओ से भला कब तक लड़ते ? इस लड़ाई में संयुक्त मुस्लिम सेनाओ ने 35 हजार सिक्खों की हत्या की. इस लड़ाई को बड़ा घल्लूघारा कहा जाता है.
अब्दाली का सातवां आक्रमण 1767 में हुआ. इस आक्रमण को सिक्खो द्वारा विफल किया लेकिन उसका ज्यादा विवरण उपलब्ध नहीं है कि- उस आक्रमण में अब्दाली कहाँ तक आया था तथा उसका कहाँ और किस से युद्ध हुआ था ? यदि किसी के पास जानकारी हो तो कृपया बताने की कृपा करें. जिससे अब्दाली के सातों आक्रमणों पर विस्तार से श्रंखला लिख सकूँ.
कुछ लोग ये भी लिखते हैं कि - अहमदशाह अब्दाली ने भारत पर दस आक्रमण किये थे, लेकिन वो अन्य तीन आक्रमण कब किये और कहाँ तक पहुंचा तथा उस समय किस किस ने उसका मुकाबला किया इसका कोई विवरण फ़िलहाल मुझे अभी तक नहीं मिल सका है. यदि किसी के पास उनकी जानकारी तो तो बताने की कृपा करें.
और हाँ किसी को ये पता हो कि - अब्दाली से किसकी, कब और किसने रक्षा की थी, तो कृपया वह भी बताना

Monday, 10 January 2022

ताशकन्द समझौता

1965 के युद्ध ( 1 सितम्बर 1965 से 23 सितम्बर 1965 ) के बारे में ज्यादातर लोग यह मानते है कि यह युद्ध भी भारत पपिस्तान के अन्य युद्ध की तरह कश्मीर के कारण हुआ था लेकिन यह तथ्य बिलकुल गलत है. उस युद्ध की मुख्य बजह थी "कच्छ की रण" पर पापिस्तानियों का हमला और वह घुसपैठ जो 9 अप्रेल 1965 को हुई थी.


यह एक ऐसी तारीख है जिसकी कसक आज भी हर हिन्दुस्तानी के दिल में होनी चाहिए. लेकिन ज्यादातर हिन्दुस्थानियों को यह बात पता भी नहीं है. 09 अप्रैल 1965, को पापिस्तान ने अचानक आक्रमण करके भारतीय कच्छ के एक बड़े भाग पर कब्जा कर लिया था. भारतीय सेना ने पापिस्तान के उस हमले का करारा जबाब दिया था.

अभी भारत कच्छ से पापस्तानियों को खदेड़ने में लगा ही था कि - अगस्त 1965 के पहले सप्ताह में, पाकिस्तान के 30 हजार से 40 हजार सैनिकों ने कश्मीर से लगी भारतीय सीमा में घुसने के लिए “ऑपरेशन जिब्राल्टर” चला दिया. इनका लक्ष्य कश्मीर के चार ऊंचाई वाले इलाकों गुलमर्ग, पीरपंजाल, उरी और बारामूला पर कब्ज़ा करना था.
हमारी सेना के पास बहुत कम हथियार थे. लेकिन इसके बाबजूद हमारी सेना ने अपने साधारण हथियारों से ही पापिस्तानियों को युद्ध में हरा दिया था . अपनी साधारण गनमाउंटेड जीपों, हथगोलों और साधारण थ्री नाट थ्री (303) रायफलों के द्वारा ही अमेरिकी टैंको को नष्ट कर दिया था और लाहौर तथा कराची को भी घेर लिया था.
भले ही इस लड़ाई को लेकर हम लाल बहादुर शास्त्री जी का कितना ही गुणगान करते हों, लेकिन वास्तविकता यह है कि - उस युद्ध में भी सेना की जीत को शास्त्री जी ताशकंद में समझौते की मेज पर हार गए थे. सेना द्वारा 1965 का युद्ध जीतने के बाद भी POK को हाशिल करना तो दूर की बात है, कच्छ की रण का एक हिस्सा पपिस्तान के पास चला गया था.
ताशकंद समझौते के कारण 1965 की लड़ाई को पापिस्तान अपनी जीत बताता है. क्योंकि हम जीतकर भी हार गए थे और पापिस्तान हार कर भी जीत गया था. जिस प्रकार हमारी सेना ने 1947-48 वाली लड़ाई जीती लेकिन कूटनीति की मेज पर जवाह्र्र लाल नेहरु "POK" और "COK" गँवा आये थे. उसी तरह से हम जीत के बाबजूद कच्छ का एक हिस्सा गँवा आये.
1965 भारत और पापिस्तान युद्ध, 9 अप्रैल 1965 से 23 सितंबर 1965 तक लगभग 6 महीने तक भारत और पापिस्तान में युद्ध चला था. युद्ध खत्म होने के 4 महीने बाद जनवरी, 1966 में दोनों देशों के शीर्ष नेता तत्कालीन सोवियत संघ में आने वाले ताशकंद में शांति समझौते के लिए रवाना हुए. पाकिस्तान की ओर से राष्ट्रपति अयूब खान वहां गए थे.
10 जनवरी को दोनों देशों के बीच शांति समझौता भी हो गया. लेकिन समझौते के 12 घंटे में ही शास्त्री जी की अचानक रहस्यमयी मौत हो गई. कहा जाता है कि समझौते के बाद कई लोगों ने शास्त्री को अपने कमरे में परेशान हालत में टहलते देखा था. कुछ लोग यह भी कहते हैं कि समझौते से वह बहुत खुश नहीं थे. ऐसा लगता था जैसे दबाब में समझौता किया है.
शास्त्री जी की मृत्यु (अथवा ह्त्या ) को लेकर कल अलग से पोस्ट डालूगा, आज इस पोस्ट में केवल ताशकंद समझौते के प्रमुख बिंदुओं पर चर्चा करते हैं. 'ताशकंद सम्मेलन' सोवियत रूस के प्रधानमंत्री द्वारा आयोजित किया गया था. इस समझौते में पापिस्तान को कोई दण्ड देने के बजाय एक तरह से इनाम दिया गया था. इसमें कहा गया था कि -
* भारत और पाकिस्तान एक दूसरे ओर शक्ति का प्रयोग नहीं करेंगे.
* दोनों देश अपने-अपने विवादों को को शान्तिपूर्ण ढंग से हल करेंगे.
* दोनों देश 25 फ़रवरी 1966 तक अपनी सेनाएँ वहां तक पीछे कर लेंगे जहा 5 अगस्त 1965 से पहले थीं.
* इन दोनों देशों के बीच आपसी हित के मामलों में शिखर वार्ताएँ तथा अन्य स्तरों पर वार्ताएँ जारी रहेंगी.
* भारत और पाकिस्तान के बीच सम्बन्ध एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने पर आधारित होंगे.
* दोनों देशों के बीच राजनयिक सम्बन्ध फिर से स्थापित कर दिये जाएँगे.
* एक-दूसरे के बीच में प्रचार के कार्य को फिर से सुचारू कर दिया जाएगा.
* आर्थिक एवं व्यापारिक सम्बन्धों तथा संचार सम्बन्धों की फिर से स्थापना तथा सांस्कृतिक आदान-प्रदान फिर से शुरू करने पर विचार किया जाएगा.
* ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाएँगी कि लोगों का निर्गमन बंद हो।
* शरणार्थियों की समस्याओं तथा अवैध प्रवासी प्रश्न पर विचार-विमर्श जारी रखा जाएगा तथा हाल के संघर्ष में ज़ब्त की गई एक दूसरे की सम्पत्ति को लौटाने के प्रश्न पर विचार किया जाएगा.
समझौते का हर बिंदु युद्ध हारे हुए पाकिस्तान के लिए फायदा तथा युद्ध जीते हुए भारत के लिए नुकशान दायक था. भारत ने पापिस्तान के जिन इलाकों पर कब्ज़ा किया था वह सब छोड़ दिया लेकिन पापिस्तान के कब्जे में चली गई भारतीय कच्छ की जमीन भारत को आजतक वापस नहीं मिली. इस समझौते के कारण हम जीत कर भी हार गए थे.