1965 के युद्ध ( 1 सितम्बर 1965 से 23 सितम्बर 1965 ) के बारे में ज्यादातर लोग यह मानते है कि यह युद्ध भी भारत पपिस्तान के अन्य युद्ध की तरह कश्मीर के कारण हुआ था लेकिन यह तथ्य बिलकुल गलत है. उस युद्ध की मुख्य बजह थी "कच्छ की रण" पर पापिस्तानियों का हमला और वह घुसपैठ जो 9 अप्रेल 1965 को हुई थी.
यह एक ऐसी तारीख है जिसकी कसक आज भी हर हिन्दुस्तानी के दिल में होनी चाहिए. लेकिन ज्यादातर हिन्दुस्थानियों को यह बात पता भी नहीं है. 09 अप्रैल 1965, को पापिस्तान ने अचानक आक्रमण करके भारतीय कच्छ के एक बड़े भाग पर कब्जा कर लिया था. भारतीय सेना ने पापिस्तान के उस हमले का करारा जबाब दिया था.
अभी भारत कच्छ से पापस्तानियों को खदेड़ने में लगा ही था कि - अगस्त 1965 के पहले सप्ताह में, पाकिस्तान के 30 हजार से 40 हजार सैनिकों ने कश्मीर से लगी भारतीय सीमा में घुसने के लिए “ऑपरेशन जिब्राल्टर” चला दिया. इनका लक्ष्य कश्मीर के चार ऊंचाई वाले इलाकों गुलमर्ग, पीरपंजाल, उरी और बारामूला पर कब्ज़ा करना था.
हमारी सेना के पास बहुत कम हथियार थे. लेकिन इसके बाबजूद हमारी सेना ने अपने साधारण हथियारों से ही पापिस्तानियों को युद्ध में हरा दिया था . अपनी साधारण गनमाउंटेड जीपों, हथगोलों और साधारण थ्री नाट थ्री (303) रायफलों के द्वारा ही अमेरिकी टैंको को नष्ट कर दिया था और लाहौर तथा कराची को भी घेर लिया था.
भले ही इस लड़ाई को लेकर हम लाल बहादुर शास्त्री जी का कितना ही गुणगान करते हों, लेकिन वास्तविकता यह है कि - उस युद्ध में भी सेना की जीत को शास्त्री जी ताशकंद में समझौते की मेज पर हार गए थे. सेना द्वारा 1965 का युद्ध जीतने के बाद भी POK को हाशिल करना तो दूर की बात है, कच्छ की रण का एक हिस्सा पपिस्तान के पास चला गया था.
ताशकंद समझौते के कारण 1965 की लड़ाई को पापिस्तान अपनी जीत बताता है. क्योंकि हम जीतकर भी हार गए थे और पापिस्तान हार कर भी जीत गया था. जिस प्रकार हमारी सेना ने 1947-48 वाली लड़ाई जीती लेकिन कूटनीति की मेज पर जवाह्र्र लाल नेहरु "POK" और "COK" गँवा आये थे. उसी तरह से हम जीत के बाबजूद कच्छ का एक हिस्सा गँवा आये.
1965 भारत और पापिस्तान युद्ध, 9 अप्रैल 1965 से 23 सितंबर 1965 तक लगभग 6 महीने तक भारत और पापिस्तान में युद्ध चला था. युद्ध खत्म होने के 4 महीने बाद जनवरी, 1966 में दोनों देशों के शीर्ष नेता तत्कालीन सोवियत संघ में आने वाले ताशकंद में शांति समझौते के लिए रवाना हुए. पाकिस्तान की ओर से राष्ट्रपति अयूब खान वहां गए थे.
10 जनवरी को दोनों देशों के बीच शांति समझौता भी हो गया. लेकिन समझौते के 12 घंटे में ही शास्त्री जी की अचानक रहस्यमयी मौत हो गई. कहा जाता है कि समझौते के बाद कई लोगों ने शास्त्री को अपने कमरे में परेशान हालत में टहलते देखा था. कुछ लोग यह भी कहते हैं कि समझौते से वह बहुत खुश नहीं थे. ऐसा लगता था जैसे दबाब में समझौता किया है.
शास्त्री जी की मृत्यु (अथवा ह्त्या ) को लेकर कल अलग से पोस्ट डालूगा, आज इस पोस्ट में केवल ताशकंद समझौते के प्रमुख बिंदुओं पर चर्चा करते हैं. 'ताशकंद सम्मेलन' सोवियत रूस के प्रधानमंत्री द्वारा आयोजित किया गया था. इस समझौते में पापिस्तान को कोई दण्ड देने के बजाय एक तरह से इनाम दिया गया था. इसमें कहा गया था कि -
* भारत और पाकिस्तान एक दूसरे ओर शक्ति का प्रयोग नहीं करेंगे.
* दोनों देश अपने-अपने विवादों को को शान्तिपूर्ण ढंग से हल करेंगे.
* दोनों देश 25 फ़रवरी 1966 तक अपनी सेनाएँ वहां तक पीछे कर लेंगे जहा 5 अगस्त 1965 से पहले थीं.
* इन दोनों देशों के बीच आपसी हित के मामलों में शिखर वार्ताएँ तथा अन्य स्तरों पर वार्ताएँ जारी रहेंगी.
* भारत और पाकिस्तान के बीच सम्बन्ध एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने पर आधारित होंगे.
* दोनों देशों के बीच राजनयिक सम्बन्ध फिर से स्थापित कर दिये जाएँगे.
* एक-दूसरे के बीच में प्रचार के कार्य को फिर से सुचारू कर दिया जाएगा.
* आर्थिक एवं व्यापारिक सम्बन्धों तथा संचार सम्बन्धों की फिर से स्थापना तथा सांस्कृतिक आदान-प्रदान फिर से शुरू करने पर विचार किया जाएगा.
* ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाएँगी कि लोगों का निर्गमन बंद हो।
* शरणार्थियों की समस्याओं तथा अवैध प्रवासी प्रश्न पर विचार-विमर्श जारी रखा जाएगा तथा हाल के संघर्ष में ज़ब्त की गई एक दूसरे की सम्पत्ति को लौटाने के प्रश्न पर विचार किया जाएगा.
समझौते का हर बिंदु युद्ध हारे हुए पाकिस्तान के लिए फायदा तथा युद्ध जीते हुए भारत के लिए नुकशान दायक था. भारत ने पापिस्तान के जिन इलाकों पर कब्ज़ा किया था वह सब छोड़ दिया लेकिन पापिस्तान के कब्जे में चली गई भारतीय कच्छ की जमीन भारत को आजतक वापस नहीं मिली. इस समझौते के कारण हम जीत कर भी हार गए थे.