सर सैयद अहमद खां का जन्म दिल्ली के एक समृद्ध व प्रतिष्ठित परिवार में 17 अक्टूबर सन 1817 को हुआ था. इनके पिता का नाम मीर मुत्तकी तथा माता का नाम मीर अजिजुत्रिसा बेगम था. इनकी शिक्षा अरबी, फ़ारसी, हिंदी, अंग्रेजी के अनेक प्रतिष्ठ विद्वानों द्वारा हुई. सर सैयद अहमद खान ने सबसे पहले मुगल दरबार में नौकरी प्रारम्भ की.
कुछ समय मुग़ल दरवार में नौकरी करने के बाद उन्होने वहां से नौकरी छोड़ दी और ईस्ट इंडिया कंपनी में क्लर्क के पद पर काम करने लगे . ईस्ट इंडिया कंपनी में क्लर्क के रूप में काम करते करते, साधारण शिक्षित होने के बाबजूद, वे 1841 ई. में मैनपुरी में उप-न्यायाधीश बन गए. इस पद का लाभ उठाकर, वे अपने समय के सबसे प्रभावशाली मुस्लिम नेता भी बन गए.
इन्होनें जीवनभर अंग्रेजियत का खुलकर समर्थन किया था. 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय उन्होंने अंग्रेज़ों को अपने घर में पनाह दी थी. अंग्रेजों ने इनकी सेवा व निष्ठा को देखते हुए इन्हें ”सर” की उपाधि से विभूषित किया था. विभिन्न पदों पर कार्य करते हुए वे सन 1876 में बनारस के स्माल काजकोर्ट के जज पद से सेवानिवृत हुए.
1857 की क्रान्ति के समय बहुत से मुसलमानों ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति में भाग लिया था. लेकिन क्रांति की असफलता के बाद सर सय्यद ने अंग्रेजों को समझाने की कोशिश की कि- इस विद्रोह में बड़ी बिरादरियों (ऊंची जाति) के मुसलमानों का हाथ नहीं है, ये तो आपके निष्ठावान हैं. इसमे केवल निचली जातियों ( जुलाहा, तेली, आदि) के मुस्लमान थे.
क्रान्ति की असफलता के बाद इन्होने अंग्रेजों के सहयोग से कई स्कूल खोले. सर सैयद अहमद ख़ान ने 1859 में उन्होंने मुरादाबाद में "गुलशन मदरसा" खोला. इसके बाद उन्होंने साल 1863 में गाजीपुर में "विक्टोरिया स्कूल" खोला. 1967 में उत्तर भारत में उर्दू की जगह हिंदी भाषा को लाने के प्रयास शुरू हो गए थे, तब उन्होंने उर्दू समर्थको का साथ दिया.
उन्होंने इंग्लैंड की अपनी यात्रा 1869-1870 के दौरान वहाँ के कॉलेजों को देखकर 'मुस्लिम केंब्रिज' जैसी महान शिक्षा संस्थाओं की योजना तैयार की. उन्होंने भारत लौटने पर इस उद्देश्य के लिए एक समिति बनाई और मुसलमानों के उत्थान और सुधार के लिए प्रभावशाली पत्रिका तहदीब-अल-अख़लाक (सामाजिक सुधार) का प्रकाशन प्रारंभ किया.
उन्होंने साल 1867 में मुहम्मडन एंग्लो-ओरियंटल स्कूल ( मदरसा-तुल-उलूम ) खोला. आगे चलकर यह स्कूल कॉलेज में बदल गया. अंग्रेजों की नौकरी से रिटायर होने के बाद 1876 उन्होने इसे कॉलेज में बदलने की योजना बनाई. सर सैयद अहमद खां मुस्लिमों की पढ़ाई को बढ़ावा तो देना चाहते थे, लेकिन सिर्फ मुसलमानों के उच्च वर्ग के परिवार से आने वाले मुस्लिमों की.
वे अशराफ़ (सवर्ण) मुसलमानों को अंग्रेज़ी सरकार का निष्ठावान बनने की प्रेरणा देते रहे. उन्होंने पूरे मुस्लिम समाज की भलाई के लिए कभी नहीं सोचा बल्कि वो केवल ‘शरीफ़ क़ौम’ के लाभ के लिए कार्य करते रहे. वह उंच-नीच को बनाए रखना और ‘नीची जाति’ को हर प्रकार से दबा कर रखना चाहते थे व उन्हें गाली-गलौच से संबोधित किया करते थे.
सर सैयद अहमद खान के मन में दो मुसलमान बसते थे. वह यह मानते थे कि कयामत के दिन खुदा का कहर सिर्फ निचले तबके के मुसलमानों पर बरपेगा. सैयद कहते थे, 'कयामत के दिन जब खुदा मुसलमान तेली, जुलाहों, अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे मुसलमानों को दंड देने लगेगा तो प्रार्थी सामने हो कर याचना करेगा कि खुदा तआला न्याय कीजिए.'
उत्तर प्रदेश के बरेली शहर के एक मदरसे ( जिसमे निचले तबके के मुसलामानों के बच्चे पढ़ते थे) ने 'मदरसा अंजुमन-ए-इस्लामिया' की स्थापना के लिए सर सैयद को बरेली बुलाया. सैयद वहां नहीं गए और उन्होंने इनको वापस एक पत्र लिखा. उस पत्र से साफ पता चलता है कि- सर सैयद निचले तबके के मुसलमानों के लिए पढ़ाई को जरूरी नहीं समझते थे.
27 मार्च 1898 को 79 बर्ष की आयु में हृदय गति रुक जाने के कारण उनका इंतकाल हो गया था. अक्सर लोग यह कहते हैं कि - सर सैयद अहमद ख़ान ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना की थी, जबकि वास्तविकता यह है कि- उनके द्वारा स्थापित किया गया कालेज (मदरसा) उनकी मृत्यु के 22 साल बाद 1920 में विश्वविद्यालय में परिवर्तित हुआ था.
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