Friday, 8 January 2021

दिल्ली का इतिहास

1. दिल्ली का इतिहास बहुत पुराना है. पौराणिक जानकारी के अनुसार दिल्ली को सबसे पहले इच्छ्वाकू वंश के "महाराज दिलीप" ने बसाया था. उनके नाम से ही इसका नाम "दिल्ली" पडा था. राजा सगर के समय में यमुना के माध्यम से गंगा का जल बंगाल में ले जाने के लिए अभियान प्रारम्भ किया था. जिसका नेतृत्व उनके पुत्र अंशुमान ने किया था.
अंशुमान को इसमें सफलता नहीं मिली. उनके बाद उनके पुत्र महाराजा दिलीप ने यह अभियान आगे बढ़ाया और पहाड़ को काटकर गंगा का जल यमुना में लाने के लिए दिल्ली को अपना बेस कैंप बनाया. हालांकि उनको भी गंगा अभियान में असफलता मिली. महाराजा दिलीप द्वारा बहुत अधिक समय वहीँ रहने पर दिल्ली एक तरह से उनकी उपराजधानी बन गई.
गंगा को धरती पर लाने के अभियान में सफलता दिलीप के पुत्र भागीरथ को मिली. महाराज भागीरथ ने अपने अभियान का केंद्र दिल्ली के बजाये हरिद्वार को बनाया और गोमुख ग्लेशियर से गंगा के लिए रास्ता बनाते हुए गंगा को प्रयागराज में प्राचीन यमुना नदी तक ले गए. इस वंश के राजाओं की राजधानी अयोध्या और उपराजधानी दिल्ली बनी रही.
2. द्वापर में यह क्षेत्र उजड़कर खांडवप्रस्थ बन गया और वर्तमान मेरठ जिले के गंगा के किनारे का गाँव "हस्तिनापुर" भव्य नगर बन गया. हस्तिनापुर राज्य का कौरवों और पांडवों में बँटबारा होने पर, यमुना पार का यह हिस्सा खांडवप्रस्थ पांडवों के हिस्से में आया. अपने पुरुषार्थ और श्रीकृष्ण के आशीर्वाद से पांडवों ने इसे पुनः बसाया और नाम दिया "इन्द्रप्रस्थ".

3. कालान्तर में इन्द्रप्रस्थ और अयोध्या दोनों ही उजड़ गए. तब प्राचीन कहानियों के आधार पर, उज्जैन के राजा वीर विक्रमादित्य ने दिल्ली और अयोध्या को पुनः खोजा और उनको फिर से बसाया. उन्होंने अयोध्या को खुबसुरत नगर बनाया तथा दिल्ली के पास महरोली में विशाल बेधशाला स्थापित की. हरिद्वार में हरी की पौड़ी भी उन्होंने ही बनबाई.
4. दस्तावेजी इतिहास में दिल्ली के बारे में पहला जिक्र 737 ईसवीं में मिलता है. तब राजा अनंगपाल तोमर 'प्रथम' ने इंद्रप्रस्थ से 10 मील दक्षिण में अनंगपुर बसाया. यहां ढिल्लिका गांव था. कुछ बरस बाद उस पर राजा ने लालकोट नगरी बसाई. राजा अनंगपाल तोमर 'प्रथम' अपने आपको अर्जुन पुत्र अभिमन्यु का वंशज मानते थे.
दिल्ली को वसाने के क्रम में 1060 ईस्वी में महाराज अनंगपाल 'द्वितीय' ने दिल्ली का विस्तार किया और महरोली से 12 मील उत्तर में प्राचीन इंद्रप्रस्थ के पास यमुना किनारे लाल पत्थरों से एक भव्य किले का निर्माण प्रारम्भ किया. उनके कोई पुत्र नहीं था केवल दो पुत्रियां थीं- चन्द्रकान्ति और कीर्तिमालिनी. बड़ी पुत्री का विवाह कन्नौज के राजा विजयपाल से हुआ था और छोटी बेटी का विवाह अजमेर के राजा सोमेश्वर चौहान से हुआ था.

अनंगपाल 'द्वितीय' की बड़ी बेटी चन्द्रकान्ति का बेटा "जयचंद" खुद को दिल्ली का स्वाभाविक उत्तराधिकारी मानता था, परन्तु महाराज ने अपनी छोटी बेटी कीर्तिमालिनी के बेटे "प्रथ्वीराज चौहान " को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया. इसी बजह से जयचन्द और पृथ्वीराज चौहान में मनमुटाव हुआ जो मोहम्मद गौरी की जीत का कारण बना.
5. मोहम्मद गोरी ने पृथ्वी राज चौहान को हराने के बाद दिल्ली की कमान अपने गुलाम "कुतुबुद्दीन ऐबक" को सौंप दी. 1206 ईस्वी में गोरी की मृत्यु के बाद, क़ुतुबुद्दीन ने अपने आप को भारत का शासक घोषित कर दिया. वह 4 साल राजा रहा. क़ुतुबुद्दीन ने महरौली के "क़ुतुब काम्प्लेक्स' से सल्तनत चलाई. गुलाम वंश की रजिया सुलतान दिल्ली की अंतिम महिला शासक थी.
6. इसके बाद जलाउद्दीन खिलजी दिल्ली सल्तनत का शासक बन गया और खिलजी बंश की स्थापना की. जलालुद्दीन के भतीजे "अलालुद्दीन खिलजी" ने अपने चाचा की हत्या कर सत्ता हथिया ली. "अलालुद्दीन खिलजी" ने "सीरी" नाम की नई राजधानी बसाई. खिलजी की इस राजधानी 'सीरी' में खिलजी के अधिकारियों के रहने की व्यवस्था थी.
7. खिलजी कमजोर हुए तो 1320 में तुगलक दिल्ली में आ गए. गयासुद्दीन तुगलक ने तुगलकाबाद किले और गयासपुर के आसपास शहर बसाया. यह दौर तुगलक से ज्यादा सूफी निजामुद्दीन औलिया और उनके शागिर्द अमीर खुसरो की वजह से जाना गया. खुसरो ने ब्रजभाषा को अरबी-फारसी में पिरोकर हिंदवी जुबान को नई रंगत दी थी.
8. गयासुद्दीन तुगलक के बाद मोहम्मद बिन तुगलक सुल्तान बना. वह राजधानी को कुछ दिन दौलताबाद ले जाने के बाद दिल्ली लौट आया. उसके बाद उसके चाचा सुल्तान फिरोजशाह तुगलक गद्दी पर बैठे. फिरोजशाह ने यमुना के किनारे "कोटला" बसाया. यहां 18 गांव थे. उसने यहाँ 10 हमाम, 150 कुएं, पांच नहरें और 30 महल बनवाए.
9. 1398 में तैमूर लंग ने दिल्ली पर हमला किया. कायर फिरोजशाह तुगलक ने अपनी प्रजा की रक्षा करने के बजाय तैमूर को काफिरों को मारने और लूटने की छूट देदी थी. 15 दिनो तक दिल्ली में लूटमार करने के बाद "तैमूर" हरिद्वार को विधवंस करने निकल पडा था. लेकिन महाबली जोगराज गुर्जर की पंचायती सेना ने तैमूर लंग को भागने पर मजबूर कर दिया.
10. तैमूर के वापस जाने के बाद दिल्ली पर "लोधी वंश" का राज हो गया. बहलोल और सिकंदर के बाद इब्राहिम लोदी ने दिल्ली का विस्तार किया और खूबसूरत बनाया लेकिन उनका बसाया शहर भी फिरोजशाह के कोटला के आसपास ही था. 1526 में पानीपत के मैदान में इब्राहिम लोदी को हराकर उज्बेक हमलावर "बाबर" ने मुग़ल वंश की स्थापना की.
11. बाबर ने दिल्ली के बजाय आगरा को अपनी राजधानी बनाया लेकिन उसकी मौत के बाद हुमायूं अपनी राजधानी को फिर दिल्ली ले आया. हुमायूं ने दिल्ली के पुराने किले के आसपास के शहर को "दीन पनाह" नाम दिया. 1539 में शेर शाह सूरी ने हुमायूं को जंग में खदेड़ दिया और दीनपनाह पर कब्जा कर उस को "शेरगढ़" नाम दिया.
शेर शाह सूरी की 1545 में मौत हो गई. 1555 में हुमायूं फिर दिल्ली आया और शेरगढ़ को फिर दीनपनाह बना दिया. सात महीने बाद उसकी भी मौत हो गई. हुमायूं का बेटा अकबर अपनी राजधानी दिल्ली से आगरा में ले गया. अकबर, जहांगीर और शाहजहां ने आगरा से ही सत्ता का संचालन किया. शाहजहाँ ने दिल्ली को पुनः बसाने की योजना बनाई.
परन्तु शाहजहां के बेटे औरंगजेब ने अपने 1658 में अपने पिता को कैद कर जबरन सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया. पिता को कैद करने और अपने भाई भतीजों की हत्या करने के कारण आगरा में औरंगजेब को सम्मान नहीं मिला, तब उसने अपनी राजधानी को दिल्ली ले जाने का बिचार किया और इसे अपने पिता शाहजहां की इच्छा कह कर प्रचारित किया.
उसने महाराजा अनंगपाल द्वितीय के अधूरे पड़े किले का जीर्णोद्धार कराया और 1679 में अपनी राजधानी आगरा से दिल्ली ले आया. अपने पिता को कैद में रखकर दुःख देने वाले औरंगजेब ने अपने पिता का खूब गुणगान किया, जिससे दिल्ली के लोग उसे अपने पिता का लायक बेटा मान लिया. जबकि आगरा के लोग उसे नालायक बेटा मानते थे.
12. 1739 में दिल्ली में मुगल शासक मोहम्मद शाह के समय ईरान से आए नादिर शाह ने दिल्ली पर हमला कर दिया. "नादिर शाह" ने "मुहम्मद शाह" से 20 करोड़ रूपय की मांग रखी. तो मुहम्मद शाह ने कहा कि- मुझे छोड़ दे और दिल्ली को लूट कर यह रकम हाशिल कर ले. नादिर ने तब तैमूर की तरह दिल्ली में भयानक कत्लेआम और लूटमार की.
मुहम्मद शाह ने अपनी बेटी का निकाह "नादिर शाह" के बेटे के साथ कर उसे अपना समधी बना लिया. वह कुल 57 दिन दिल्ली में रहा. लगातार भयानक, लूटमार, कत्लेआम और महिलाओं के साथ बलात्कार किया. वह अपने साथ तख्त-ए-ताऊस, कोहेनूर हीरा और हजारों महिलाओं को गुलाम बनाकर अपने साथ ले गया.
1747 में नादिर शाह की मौत के बाद अहेमद शाह अब्दाली अफगानिस्तान का शासक बना. 1756 में भारत के कुछ मुस्लिम नबाबो ने अहेमद शाह अब्दाली को भारत में आक्रमण करने के लिए आमंतरित किया. अपने हमलों में उसने नादिरशाह द्वारा दिल्ली में किये गये किये गये कत्लेआम और लूटमार को एक बार फिर से दुहराया.
इस बीच भारत में अंग्रेज मजबूत हो रहे थे और मुगल शासक सिमटते जा रहे थे. अंग्रेजों ने कलकत्ता को अपनी राजधानी बनाया. 1803 में दिल्ली भी अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गई, लेकिन मुघलो की नाम मात्र की सत्ता 1857 तक चलती रही. 1857 की क्रांति की असफलता के बाद दिल्ली में अंग्रजों का पूरी तरह से कब्ज़ा हो गया.

13. 1911 में अंग्रेज भी अपनी राजधानी कलकत्ता से दिल्ली ले आये. यह दिल्ली के बसने का आखिरी दौर था जो 1911 से शुरू हुआ और नई दिल्ली कहलाया. दिल्ली में आकर जॉर्ज पंचम ने दिल्ली को राजधानी बनाने का ऐलान किया. इसके बाद एडविन लुटियंस ने शानदार इमारतें बनाईं, इनमें वाइसराय हाउस और इंडिया गेट शामिल है.
14. आजादी के बाद वाइसराय हाउस को राष्ट्रपति भवन तथा असेंबली को संसद भवन बना दिया गया और यही सत्ता का केंद्र बन गए. लाल किले के महत्त्व को बनाये रखने के लिए स्वाधीनता दिवस समारोह का आयोजन लालकिले में रखा गया और आज भी स्वाधीनता दिवस की बर्षगांठ लालकिले की प्राचीर पर तिरंगा ध्वजारोहण कर मनाई जाती है.

15. वर्तमान सरकार द्वारा अंग्रेजों की बनाई असेम्ब्ली (वर्तमान संसद भवन) के पास ही नया संसद भवन बनाया जा रहा है जिसका नाम दिया गया है "सेंट्रल विस्टा". इसकी योजना मनमोहन सिंह सरकार में बनी थी लेकिन कागजों में ही रह गई. इस पर कार्यन्वयन वर्तमान की मोदी सरकार में हुआ. आने वाले समय में यहीं से सारे देश का संचालन किया जाएगा.






Wednesday, 6 January 2021

भारतीय सनातन संस्कृति को भूलने का परिणाम है छेड़छाड़ और बलात्कार

प्राचीन भारतीय संस्कारी भारत की बात करें तो, मनुष्य की आयु के 100 बर्षों को 4 भागों में बांटा गया था. जीवन के पहले 25 बर्ष ब्रहचर्य आश्रम, 25 से 50 बर्ष गृहस्त आश्रम, 50 से 75 बर्ष वान्प्रस्थ आश्रम और 75 से सौ बर्ष संन्यास आश्रम के लिए निर्धारित किये गए थे. लोगों की आवश्यकता के अनुसार इसमें 2 - 4 बर्ष आगे पीछे करने का प्रावधान भी था. 

 ब्रह्मचर्य आश्रम में व्यक्ति ब्रह्मचारी जीवन बिताते हुए - ज्ञान, विद्या, कला, युद्ध, व्यापार, खेती, दस्तकारी, आदि सीखता था, ग्रहस्त आश्रम में आते ही उसका विवाह कर दिया जाता था. जिसके साथ उसका विवाह हो जाता था उसको वो अपना जीवन साथी मान लेता था और उसके साथ जीवन व्यतीत करते हुए अपने वंश को बढाता था. वानप्रस्थ आश्रम में वो अपनी जिम्मेदारियां अपने उत्तराधिकारियों पर डालकर उनका मार्गदर्शन करता था. 

जब उसके उत्तराधिकारी जिम्मेदारियां सम्हाल लेते थे तो वो सामान्य जीवन से संन्यास लेकर, ईश्वर की पूजापाठ, तपस्या आदि में लग जाता था. महिलाओं का जीवन भी आश्रम पद्धति से जुड़ा था, कुछ कामो में भिन्नता अवश्य थी. पुरुषों को शिक्षा दी जाती थी कि - अपनी पत्नी के अतिरिक्त प्रत्येक स्त्री को आयु के अनुसार माँ - बहन - पुत्री के रूप में देखे और स्त्री को भी सिखाया जाता था कि - पति के अतिरिक्त प्रत्येक पुरुष को आयु के अनुसार पिता - भाई - पुत्र के रूप में देखें. 

इसीलिए उस काल में दुष्ट से दुष्ट व्यक्ति भी किसी स्त्री के साथ कोई दुव्यवहार नहीं करता था. प्राचीन काल में महिलाओं से दुर्व्यवहार के केवल दो उदाहरण मिलते हैं. एक में रावण ने सीता का अपहरण किया और दुसरे में दुर्योधन ने द्रौपदी के चीरहरण का प्रयास किया. उनके इस कार्य को उनके साथियों ने तक अच्छा नहीं माना और आखिर में उनका सर्वनाश हो गया और हजारों साल से आजतक, उनको बुरा व्यक्ति मानकर नफरत की जाती है.

इन दो के अलावा कोई और उदाहरण नहीं है जिसमे शत्रुओं ने, एक दुसरे की स्त्रियों को बे-इज्ज़त करने का प्रयास किया हो. युद्ध होने पर राजाओं की सेना युद्ध लडती थी. जिस राजा की सेना जीत जाती थी उस राज्य की प्रजा जीते हुए राजा को अपना राजा मानकर उसे राजस्व और सम्मान देने लगती थी, प्रजा के जीवन में और कोई फर्क नहीं पड़ता था. 

भारत में यह समस्या तब आई, जब उन विदेशी हमलावरों ने भारत पर आक्रमण किया जिनकी संस्क्रती यहाँ से उलट थी. उनकी संस्क्रती में स्त्री कोई मनुष्य नहीं थी बल्कि वो केवल भोगने की वस्तु थी. जो युद्ध में पुरुष को मारने के बाद, उसके परिवार की स्त्रियों को अपनी जीत का इनाम मानते थे. इसके बाद ही भारतीय समाज में विकृति आई है. 

इतिहास गवाह है कि - फिर भी भारत की ज्यादातर स्वाभिमानी स्त्रियों ने जालिम हत्यारों की दासता स्वीकारने के बजाय अपनी जान देना बेहतर समझा था. इसके अलावा भारतीय राजाओं ने तब भी शत्रु स्त्रियों को कभी बेईज्ज़त नहीं किया. "शिवाजी और गौहरबानो" का किस्सा भारतीय इतिहास में अमर है. वो हमारी सभ्य संस्क्रति का सबसे बड़ा उदाहरण है. 

विदेशी अप-संस्कृति के जाल में फंसकर अपनी भारतीय संस्कृति को भुला देने से ही भारत में छेड़छाड़ और बलात्कार जैसी विकृतियाँ आई हैं. यह कहना कि - ऐसा कपड़ों के कारण होता है तो यह केवल असल समस्या से मुह फेरने जैसा है. इस समस्या का स्थाई समाधान केवल उस प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रचार और प्रसार से ही किया जा सकता है. 

इस तरह के अपराधों को रोकने के लिए, स्कूलों में शिक्षा के माध्यम से बच्चों को भारतीय संस्कृति का पाठ पढ़ाना चाहिए. इसके अलावा झूठी नैतिकता को दिखावा बंद करके वेश्यालयों को कानूनी मान्यता देनी चाहिए. जिससे समाज का वो बिशेष तबका वहां जाकर अपनी हवस मिटा ले और जन सामान्य को कोई तकलीफ न दे पाए.

कोस मीनार

अक्सर कहा जाता है कि - पुराने जमाने में फलां राजा ने फलां सड़क या फलां हाइवे बनाया था. यह बात पूरी तरह से गलत है कि - प्राचीन काल में किसी भी राजा ने कोई पक्की सड़क अथवा कोई हाईवे बनाया था या मार्ग में आने वाली किसी नदी / नाले पर कोई पुल बनबाया था. 

लोगों के चलने से जो रास्ते बन जाते थे वही मिट्टी के रास्ते हुआ करते थे. अपने अपने राज्य में से गुजरने वाले इन कच्चे रास्तों पर स्थानीय राजा, जागीरदार, सेठ, आदि उन रास्तों की साफ़ सफाई करा दिया करते थे और कुएं, बाउली, सुरक्षा चौकी, सराय, आदि बनबा दिया करते थे. 

प्राचीन काल से ही ऐसे कार्यों को करना बहुत ही धार्मिक कार्य माना जाता रहा है. आप अशोक, विक्रमादित्य, हर्षबर्धन, आदि के बारे में पढ़ते समय अक्सर लिखा देखते होंगे कि - उन्होंने रास्तो छायादार / फलदार बृक्ष लगबाए और कुएं - तालाब खुदबाये, आग का इंतजाम किया,... 

रास्तों के किनारे मंदिर और सराय भी बनाई जाती थी, जहाँ गुजरने वाले यात्री पड़ाव डालते थे और विश्राम करते थे. ऐसे ही रास्तों के किनारे पहचान के लिए ऊँची सी मीनार बना दी जाती थी, उसके आसपास भी कुंआ और आग की व्यवस्था राजाओं और दानियों द्वारा की जाती थी. इन मीनार को कोस मीनार कहा जाता था. 

यूँ तो इस तरह की चीजे हजारों साल से बनाई जाती रही है लेकिन शेरशाह सूरी ने अपने शासन काल में इन्हे काफी बड़ी संख्या में बनबाया था. शेरशाह सूरी ने जिस मार्ग पर ये कोस मीनार बनबाये थे, उस मार्ग को शेरशाह सूरी मार्ग कहा जाता है. अगर आप दिल्ली से जलंधर जाएँ तो आपको ऐसे अनेको कोस मीनार दिखाई दे जाएंगे. 

ये कोस मीनार ज्यादातर वर्तमान हाइवे के किनारे बने गाँवों की पतली सड़क के किनारे बने हुए है क्योंकि प्राचीन रास्ते वही पुराने है. वर्तमान वाली सीधी और चौड़ी सड़के तो बहुत बाद में बनी है. शेरशाह सूरी के बाद रास्तों को सुविधाजनक बनाने का सबसे ज्यादा काम मालवा (इंदौर) की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने किया था. 

उन्होंने सड़को के किनारे कोस मीनार बनाने से ज्यादा  मंदिर, धर्मशाला, कुएं, तालाब, फलदार पेड़, आदि बनाने / लगाने पर ज्यादा ध्यान दिया था पहले ये रास्ते सीधे नहीं थे बल्कि गाँवों में घूमते हुए जाते थे. इसलिए आपको ज्यादातर कोस मीनार नेशनल हाईवे के किनारे नहीं बल्कि हाईवे के किनारे बसे हुए पुराने गाँवों की पुरानी सड़कों के किनारे बने हुए दिखेंगे. 

इन रास्तो को सीधा करने का काम रेल लाइन पड़ने के बाद हुआ. अंग्रेजों द्वारा भारत में रेल लाइन बिछाने के बाद, उसके समांतर में सड़को का विकास शुरू हुआ. पुराने शेरशाह सूरी मार्ग को सीधा करने के लिए कुछ पुराना रास्ता इस्तेमाल किया गया तथा कुछ नया रास्ता बनाया गया. इसको अंग्रेजों ने ग्रांड ट्रक रोड (GT road ) नाम दिया. 

अंग्रेजों ने रास्तो को पक्का करने और रास्ते में आने वाले नदी / नालों पर पुल बनाने का काम भी किया था. अंग्रेजों द्वारा GT Road पर पत्थर (गिट्टी) डालकर उन्हें कठोर बनाया गया था. अंग्रेजो ने नाम दिया था GT Road लेकिन ग्रामीण भारतीय उसे गिट्टी रोड कहा करते थे. 

वर्तमान हाई-वे और स्पीड-वे उन्ही रास्तों का विकसित रूप है. आज रास्ते बहुत चौड़े और सीधे हो चुके है. रास्तों पर बेहतरीन पुल और सुरंगे बन चुकी है. लेकिन उन परिस्तिथयों में कोस मीनार का कितना महत्त्व रहा होगा , हम इसे आज भी आसानी से समझ सकते हैं