Wednesday, 1 December 2021

उत्तरा पथ ( ग्रैंड ट्रंक रोड / सड़क-ए-आजम / सड़क-ए-शेरशाह )

भारत की इस सबसे लंबी, पुरानी एवं प्रसिद्ध सड़क को ग्रैंड ट्रंक रोड (G. T. Road) रोड माना जाता है. इसे ढाका से लेकर काबुल तक बताया जाता है. कुछ लोगो का यह कहना है कि इसे शेरशाह सूरी ने बनाया था.

जबकि वास्तविकता यह है कि- इसका निर्माण "सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य" ने कराया था. तब यह चटगांव (चट्टोग्राम) से शुरू होकर काबुल से भी काफी आगे उज़्बेकिस्तान के तरमीज़ में सिल्क रोड में मर्ज होकर समाप्त होती थी.
सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के बाद के राजाओं ने इसे और भी विस्तार दिया और यह मार्ग चट्टोग्राम (बांग्लादेश) से रंगून (म्यानमार), बैंकाक (थाईलैंड), अंकोरवाट (कम्बोडिया) होते हुए वियतनाम के "हो ची मीन" तक पहुँच गया था.
लेकिन अगर आप अपने आसपास के 10 लोगों से पूछेंगे तो उनमें से 9 लोग बताएंगे कि ग्रैंड ट्रैंक रोड को "शेरशाह सूरी" ने बनवाया था क्योंकि उन्होंने अपनी इतिहास के किताब में यही पढ़ा हुआ है जबकि यह भ्रामक तथ्य है.
शेरशाह ने कुल चार साल राज किया था और वह भी बहुत छोटे हिस्से पर. इन चार सालों में भी उसने कोई निर्माण नहीं किया बल्कि युद्ध ही लड़ता रहा. शेरशाह सूरी से पहले बाबर, तैमूर, मोहम्मद गौरी इसी मार्ग से भारत में आये थे.
भारत की इस सबसे लंबी एवं प्रसिद्ध सड़क को शेरशाह ने नहीं बल्कि शेरशाह से 1850 साल पहले "चंद्रगुप्त मौर्य" ने बनवाया था. चंद्र गुप्त मौर्य के बाद, अशोक, पुष्यमित्र शुंग, वीर विक्रमादित्य, आदि ने इसमें सुधार किया.

उत्तरा पथ के पूर्वी भाग को बनाने का श्रेय कम्बोडिया के राजा सूर्यवर्मन द्वितीय को जाता है. सूर्यवर्मन द्वितीय ने ही दुनिया का सबसे विशाल बिष्णु मंदिर "अंकोरवाट" बनवाया था. लेकिन हमारे सेकुलर इतिहासकारों ने शेरशाह के महिमामंडन हेतु उसे GT ROAD का निर्माता घोषित कर दिया .

ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि GT ROAD शेरशाह (1540-1545) से 1850 साल पहले 329 ईसा पूर्व से ही भारत में मौजूद है. चंद्रगुप्त मौर्य के समय इस सड़क को "उत्तरा पथ" के नाम से जाना जाता था.
हो सकता है शेरशाह ने अपने इलाके में पड़ने वाले इस सड़क के कुछ हिस्से की रिपेयर करवाई हो. शेरशाह ने अपने इलाके में इसका नाम बदल कर "सड़क-ए-आजम" कर दिया था लेकिन इतिहासकारों ने इसे "सड़क-ए-शेरशाह" कहना शुरू कर दिया.
इसका वर्तमान नाम "ग्रैंड ट्रैंक रोड" अंग्रेजों का दिया हुआ है. जिस शेरशाह सूरी के बारे में इतिहास की किताब में कसीदे पढ़े गए हैं, वो केवल 4 साल (1540-1545) तक ही सत्ता में रहा था लेकिन इरफान हबीब और रोमिला थापर ने उसे निर्माता बना दिया.

शेरशाह सूरी ने एक छोटे से इलाके पर मात्र चार साल राज करते हुए चटगांव से तरमीज़ तक सड़क वैसे ही बनाई थी जैसे मोहम्मद गौरी और उसके गुलाम कुतबुद्दीन ने अजमेर में अढ़ाई दिन का झोपड़ा नामक मस्जिद बनाई थी या चार साल में कुतुबुद्दीन ने कुतुबुद्दीन ने क़ुतुबमीनार बना दी थी

Wednesday, 10 November 2021

मौलाना आजाद

कांग्रेस के बहुत बड़े मुस्लिम नेता और आजाद भारत के पहले शिक्षामंत्री "मौलाना आजाद" का वास्तविक नाम "अब्दुल कलाम गुलाम मोहियुद्दीन अहमद बिन खैरूद्दीन अल हुसैनी" था. मौलाना आज़ाद अफग़ान उलेमाओं के ख़ानदान से ताल्लुक रखते थे जो बाबर के समय हेरात से भारत आए थे. उनके पिता मोहम्मद खैरुद्दीन एक फारसी थे तथा माँ अरबी मूल की थीं.


1857 के पहले स्वधीनता आंदोलन के समय "मौलाना आजाद" के दादा अपने परिवार को लेकर कलकत्ता छोड़ कर मक्का चले गए. उनके पिता मोहम्मद खैरूद्दीन ने दीनी तालीम हाशिल की और वहीँ पर निकाह किया. मक्का में 11 नवंबर, 1888 मोहम्मद खैरूद्दीन के यहाँ बेटे का जन्म हुआ और उसका नाम रखा गया- "गुलाम मोहियुद्दीन अहमद".
मौहम्मद खैरूद्दीन 1890 में कलकत्ता (भारत) लौट गए. मक्का से दीनी तालीम हाशिल करने के कारण उनको मुस्लिम समुदाय में "मुस्लिम विद्वान" के रूप में ख्याति मिली. जब आज़ाद मात्र 11 साल के थे तब उनकी माता का देहांत हो गया. उनकी आरंभिक शिक्षा इस्लामी तौर तरीकों से घर पर या मस्ज़िद में हो हुई. हालांकि बाद में उन्होंने अंग्रेजी भी सीखी.
आज़ाद ने उर्दू, फ़ारसी, हिन्दी, अरबी तथा अंग्रेजी़ भाषाओं में महारथ हासिल की. तेरह साल की आयु में उनका विवाह ज़ुलैखा बेग़म से हो गया. वे सलाफी (देवबन्दी) विचारधारा के करीब थे और उन्होंने क़ुरान के अन्य भावरूपों पर लेख भी लिखे. आज़ाद ने अंग्रेज़ी समर्पित स्वाध्याय (सेल्फ स्टडी) से सीखी और पाश्चात्य दर्शन को भी बहुत पढ़ा.
उनके पिता उन्हें किराने की दूकान कराना चाहते थे मगर उनका झुकाव पत्रकारिता की तरफ था. उन्होने 1912 में उन्होंने एक उर्दू पत्रिका "अल हिलाल" का सूत्रपात किया. 1915 तक कांग्रेस केवल अभिजात्य वर्ग का संगठन थी लेकिन 1915 में गांधीजी के आने के बाद कांग्रेस के स्वरूप में परिवर्तन आया और इससे आम लोग भी जुड़ने लगे.
मौलाना आजाद भी कांग्रेस के साथ जुड़ गए. इसी बीच 1919 में अंग्रेजों ने तुर्की के खलीफा को गद्दी से उतार दिया. सारी दुनिया की तरह भारत के मुस्लमान भी खलीफा के समर्थन और अंग्रेजों के खिलाफ सड़कों पर उतर आये. ऐसे में मौलाना आजाद ने कांग्रेस से कहा कि- अगर हमारे आंदोलन में आप हमारा साथ देते हैं तो मुस्लमान भी आपका साथ देंगे.
मौके को लाभकारी मानते हुए गांधीजी ने "असहयोग आंदोलन" की तैयारी कर ली. मुसलमानो के इस धार्मिक आंदोलन "खिलाफत" के समान्तर में गांधी जी ने "असहयोग आंदोलन" शुरू कर दिया. दोनों ही आंदोलनो का उद्देश्य अलग था लेकिन कांग्रेस द्वारा हिंदुओ को यही समझाया गया कि - एक ही आंदोलन है, असहयोग को उर्दू में खिलाफत कहते हैं.
खिलाफत आंदोलन के सिलसिले में उन्हें 1920 में राँची में जेल की सजा भुगतनी पड़ी थी. उन दिनों मुस्लिम लीग पार्टी मुसलमनाओ में बहुत ही लोकप्रिय होती जा रही थी. असहयोग आंदोलन और खिलाफत आंदोलन की असफलता और मालाबार, मुलतान, कोहाट, आदि के दंगों के बाद, देश के हिन्दू भी "हिन्दू महासभा' की तरफ ध्रुवीकृत होते जा रहे थे.
कांग्रेस को लगा कि- अगर इन्हे साथ ले लिया जाए तो मुसलमानो को भी अपनी तरफ किया जा सकता है और हिन्दुओं का भी "हिन्दू महासभा" की तरफ ध्रुवीकरन होने से रोका जा सकता है. देखते ही देखते एक कट्टर मुस्लिम धार्मिक नेता "अब्दुल कलाम गुलाम मोहियुद्दीन अहमद" को कांग्रेस द्वारा हिन्दू-मुस्लिम एकता का पोस्टर बॉय बना दिया गया.
वे जब "अल हिलाल" में इस्लामिक तक़रीर देते थे तो वे अपना नाम "मौलाना अब्दुल कलाम गुलाम मोहियुद्दीन अहमद" लिखते थे और जब कोई सेर लिखते थे तो उसे "आजाद" नाम से लिखा करते थे. कांग्रेस ने जब उन्हें जब हिन्दू मुस्लिम एकता का पोस्टर बॉय बनाकर प्रचारित किया तो गांधी जी ने उनको नया नाम दिया "मौलाना आजाद".
गांधी जी का कहना था कि- मौलाना और आजाद उनकी पुरानी पहचान है ही और इसे हिन्दुओ द्वारा बोलना और समझना भी आसान होगा. इसके अलावा उन दिनों क्रांतिकारी नेता चंद्रशेखर आजाद भी देश में बहुत लोकप्रिय थे. देखते ही देखते वे कट्टर खिलाफ़ती नेता "मौलाना कलाम गुलाम मोहियुद्दीन" से सेकुलर कांग्रेस नेता "मौलाना आजाद" हो गए.
कांग्रेस उनको सेकुलर बताती थी लेकिन उन्होंने अपनी इस्लाम के प्रति निष्ठा को नहीं छुपाया. वे हमेशा ही मुसलमानो के अधिकारों के प्रति सजग रहे. जहाँ जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग भारत के मुस्लिम बहुल इलाके को पापिस्तान बनाना चाहता था, वहीँ मौलाना आजाद मुसलमानो की कम संख्या वाले इलाकों में मुस्लिम के अधिकार के लिए ये लड़ रहे थे.
जिन्ना का उद्देश्य था कि - भारत के मुस्लिम बहुल इलाके को इस्लामिक देश बना दिया जाए और मौलाना का उद्देश्य था कि - मुस्लिम अल्पसंख्यक इलाके के मुसलमानो को पापिस्तान न भेजा जाए बल्कि उनको भारत में ही बहुसंख्यकों से ज्यादा हक़ दिलाया जाए. इस तरह मुसलमानो को एक अलग देश भी मिल गया और भारत में हिन्दुओं से ज्यादा अधिकार भी.
देश आजाद होने के बाद जब भारत से कुछ मुसलमान पापिस्तान चले गए तो मौलाना आजाद मांग करने लगे कि - मुसलमानो द्वारा खाली किये गए मकान और जमीन केवल भारतीय मुसलमानो को ही मिलनी चाहिए. लेकिन सरदार पटेल ने कस्टोडियन विभाग बनाकर पापिस्तान से आये हिन्दू / सिक्ख शरणार्थियों को वह घर अलाट करना शुरू करा दिया.
जब उनको लगा कि सरदार पटेल नहीं मानेंगे तब उन्होंने पापिस्तान चले गए मुसलमानो की जमीन "मुस्लिम बक्फ बोर्डों" को देने की मांग शुरू कर दी. इस तरह पापिस्तान से आये कुछ लोगों को तो घर मिल गया लेकिन बाद में बंद हो गया और इस जमीन पर हिन्दुओं / सिक्खों को आबंटित करने से रोकने के बाद उन्होंने इसे "बक्फ" की संपत्ति घोषित करवा दिया.
केंद्र सरकार से कहकर उन्होंने "वक्फ एक्ट 1954" बनबाया. जिसका काम देश भर में मौजूद "बक्फ बोर्डो" और बक्फ कार्यों की निगरानी करना था. बाद में सन 1964 में वक्फ बोर्ड एक कानूनी निकाय बन गया. पापिस्तान चले गए मुसलमानो की ज्यादातर जमीन पर आज भी बक्फ बोर्ड के माध्यम से केवल मुस्लिम संस्थाओं का ही अधिकार है.
पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में बक्फ बोर्ड के पास बहुत जमीन है. 1947 में बंटबारे के समय पापिस्तान में हिन्दुओं / सिक्खों का बहुत कत्लेआम हुआ था. दिल्ली में भी इसकी थोड़ी बहुत प्रतिक्रिया हुई. उस समय दिल्ली के पुलिस कमिश्नर एक सिक्ख थे, मौलाना आजाद उनको हटाने और उन्हें सजा दिलबाने की मांग करने लगे लेकिन पटेल नहीं माने.
इस प्रकार आप समझ ही चुके होंगे कि मौलाना आजाद कितने बड़े सेकुलर थे. उनको नेहरूजी द्वारा आजाद भारत का पहला शिक्षामंत्री बनाया गया जबकि मौलाना आजाद के पास केवल मदरसे वाली शिक्षा ही थी. जबकि नेहरूजी के पास उस समय "राधा कृष्णन", "कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी" और डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे विद्वान् मौजूद थे.
यही बजह है कि - हमारी पाठ्य पुस्तकों में बाबर, अकबर, आदि महान बना दिए गए और कुतुबुद्दीन, शाहजहां, आदि को भवन निर्माता बना दिया गया. अलाउद्दीन खिलजी और चित्तौड़ के वास्तविक बताते होते हुए भी पद्मावती को काल्पनिक घोषित कर दिया गया. कांग्रेस नेताओं पर पुस्तके लगाईं गईं और क्रांतिकारियों की कहानिया एक दो पैराग्राफ में निपटा दी गईं.

Sunday, 17 October 2021

सर सैयद अहमद खां

सर सैयद अहमद खां का जन्म दिल्ली के एक समृद्ध व प्रतिष्ठित परिवार में 17 अक्टूबर सन 1817 को हुआ था. इनके पिता का नाम मीर मुत्तकी तथा माता का नाम मीर अजिजुत्रिसा बेगम था. इनकी शिक्षा अरबी, फ़ारसी, हिंदी, अंग्रेजी के अनेक प्रतिष्ठ विद्वानों द्वारा हुई. सर सैयद अहमद खान ने सबसे पहले मुगल दरबार में नौकरी प्रारम्भ की.
कुछ समय मुग़ल दरवार में नौकरी करने के बाद उन्होने वहां से नौकरी छोड़ दी और ईस्ट इंडिया कंपनी में क्लर्क के पद पर काम करने लगे . ईस्ट इंडिया कंपनी में क्लर्क के रूप में काम करते करते, साधारण शिक्षित होने के बाबजूद, वे 1841 ई. में मैनपुरी में उप-न्यायाधीश बन गए. इस पद का लाभ उठाकर, वे अपने समय के सबसे प्रभावशाली मुस्लिम नेता भी बन गए.
इन्होनें जीवनभर अंग्रेजियत का खुलकर समर्थन किया था. 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय उन्होंने अंग्रेज़ों को अपने घर में पनाह दी थी. अंग्रेजों ने इनकी सेवा व निष्ठा को देखते हुए इन्हें ”सर” की उपाधि से विभूषित किया था. विभिन्न पदों पर कार्य करते हुए वे सन 1876 में बनारस के स्माल काजकोर्ट के जज पद से सेवानिवृत हुए.
1857 की क्रान्ति के समय बहुत से मुसलमानों ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति में भाग लिया था. लेकिन क्रांति की असफलता के बाद सर सय्यद ने अंग्रेजों को समझाने की कोशिश की कि- इस विद्रोह में बड़ी बिरादरियों (ऊंची जाति) के मुसलमानों का हाथ नहीं है, ये तो आपके निष्ठावान हैं. इसमे केवल निचली जातियों ( जुलाहा, तेली, आदि) के मुस्लमान थे.
क्रान्ति की असफलता के बाद इन्होने अंग्रेजों के सहयोग से कई स्कूल खोले. सर सैयद अहमद ख़ान ने 1859 में उन्होंने मुरादाबाद में "गुलशन मदरसा" खोला. इसके बाद उन्होंने साल 1863 में गाजीपुर में "विक्टोरिया स्कूल" खोला. 1967 में उत्तर भारत में उर्दू की जगह हिंदी भाषा को लाने के प्रयास शुरू हो गए थे, तब उन्होंने उर्दू समर्थको का साथ दिया.

उन्होंने इंग्लैंड की अपनी यात्रा 1869-1870 के दौरान वहाँ के कॉलेजों को देखकर 'मुस्लिम केंब्रिज' जैसी महान शिक्षा संस्थाओं की योजना तैयार की. उन्होंने भारत लौटने पर इस उद्देश्य के लिए एक समिति बनाई और मुसलमानों के उत्थान और सुधार के लिए प्रभावशाली पत्रिका तहदीब-अल-अख़लाक (सामाजिक सुधार) का प्रकाशन प्रारंभ किया.
उन्होंने साल 1867 में मुहम्मडन एंग्लो-ओरियंटल स्कूल ( मदरसा-तुल-उलूम ) खोला. आगे चलकर यह स्कूल कॉलेज में बदल गया. अंग्रेजों की नौकरी से रिटायर होने के बाद 1876 उन्होने इसे कॉलेज में बदलने की योजना बनाई. सर सैयद अहमद खां मुस्लिमों की पढ़ाई को बढ़ावा तो देना चाहते थे, लेकिन सिर्फ मुसलमानों के उच्च वर्ग के परिवार से आने वाले मुस्लिमों की.
वे अशराफ़ (सवर्ण) मुसलमानों को अंग्रेज़ी सरकार का निष्ठावान बनने की प्रेरणा देते रहे. उन्होंने पूरे मुस्लिम समाज की भलाई के लिए कभी नहीं सोचा बल्कि वो केवल ‘शरीफ़ क़ौम’ के लाभ के लिए कार्य करते रहे. वह उंच-नीच को बनाए रखना और ‘नीची जाति’ को हर प्रकार से दबा कर रखना चाहते थे व उन्हें गाली-गलौच से संबोधित किया करते थे.
सर सैयद अहमद खान के मन में दो मुसलमान बसते थे. वह यह मानते थे कि कयामत के दिन खुदा का कहर सिर्फ निचले तबके के मुसलमानों पर बरपेगा. सैयद कहते थे, 'कयामत के दिन जब खुदा मुसलमान तेली, जुलाहों, अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे मुसलमानों को दंड देने लगेगा तो प्रार्थी सामने हो कर याचना करेगा कि खुदा तआला न्याय कीजिए.'
उत्तर प्रदेश के बरेली शहर के एक मदरसे ( जिसमे निचले तबके के मुसलामानों के बच्चे पढ़ते थे) ने 'मदरसा अंजुमन-ए-इस्लामिया' की स्थापना के लिए सर सैयद को बरेली बुलाया. सैयद वहां नहीं गए और उन्होंने इनको वापस एक पत्र लिखा. उस पत्र से साफ पता चलता है कि- सर सैयद निचले तबके के मुसलमानों के लिए पढ़ाई को जरूरी नहीं समझते थे.
27 मार्च 1898 को 79 बर्ष की आयु में हृदय गति रुक जाने के कारण उनका इंतकाल हो गया था. अक्सर लोग यह कहते हैं कि - सर सैयद अहमद ख़ान ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना की थी, जबकि वास्तविकता यह है कि- उनके द्वारा स्थापित किया गया कालेज (मदरसा) उनकी मृत्यु के 22 साल बाद 1920 में विश्वविद्यालय में परिवर्तित हुआ था.


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Friday, 13 August 2021

केलाड़ी रानी चेन्नम्मा

इतिहास में "चेन्नम्मा" नाम की दो रानियों को बहुत ही सम्मान के साथ याद किया जाता है. इनमे से एक हैं "कित्तूर रानी चेन्नम्मा" और दूसरी है "केलाड़ी रानी चेन्नम्मा". "कित्तूर रानी चेन्नम्मा" ने अंग्रेजों से टक्कर ली थी और "केलाड़ी रानी चेन्नम्मा" ने मुघलो को दक्षिण में बढ़ने से रोका था और शिवाजी महाराज के पुत्र "राजाराम" को शरण दी थी.
कर्नाटक के मलनाड क्षेत्र में "केलाड़ी" नाम का एक स्वतंत्र राज्य था. सन 1664 में "सोमशेखर नायक" केलाड़ी के राजा बने. वे एक कुशल और धार्मिक राजा थे. वे जाति, धन और खानदान के आधार पर इंसानो में भेद करने को अच्छा नहीं मानता था. उन्होने एक स्थानीय व्यापारी सिद्दप्पा शेट्टार की बेटी "चेन्नम्मा" से विवाह किया था.
जब उन्होंने किसी राजकुमारी के बजाय एक गैर राजवंशी लड़की से विवाह करने की घोषणा की तो उनके गुरु और मंत्रियों ने यह कहकर बिरोध किया कि - एक साधारण व्यापारी की पुत्री कैसे साम्राज्ञी बन सकती है. लेकिन वे नहीं माने और उन्होंने चेन्नम्मा को केलाड़ी की रानी बनाया. उनका विवाह बड़ी धूमधाम और शाही वैभव के साथ संपन्न हुई.
रानी चेन्नम्मा भी राजघराने की गरिमा का सम्मान करते हुए एक कुशल रानी की तरह राजघराने का कार्य देखने लगी. वह राज्य के विषयों में रूचि लेती और महत्वपूर्ण मामलों पर राजा को बहुमूल्य सलाह भी देती. शीघ्र की राज्य की जनता और राज कर्मचारी रानी चेन्नम्मा को सम्मान देने लगे. परन्तु इसी बीच राजा सोमशेखर एक नर्तकी के चक्कर में पड़ गए.
वह राज-काज उपेक्षा कर नर्तकी के साथ समय बिताने लगे जिसके कारण राज्य की स्थिति ख़राब होने लगी. ऐसे में बीजापुर का सुल्तान कलेड़ी पर आक्रमण कर कब्ज़ा करने की सोंचने लगा. मंत्रियों ने उनको चेताया मगर राजा सोमशेखर ने ध्यान नहीं दिया. मंत्रियों के समझाने पर उस नाजुक समय में चेनम्मा ने शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली.
इस बीच बीजापुर के सुलतान ने चेन्नम्मा के पति राजा सोमशेखर की हत्या करवा दी और कलेड़ी पर आक्रमण कर दिया. ऐसे में रानी चेन्नम्मा ने शोक को भुलाकर अपनी सेना का नेतृत्व किया और युद्ध में बीजापुर की सेना को पीठ दिखाकर भागने पर मजबूर कर दिया. इस जीत के बाद 1671 में चेन्नम्मा को आधिकारिक तौर पर कलेड़ी की रानी घोषित किया गया.
उस समय चेन्नम्मा निसंतान थी इसलिए राज्य के वारिस के रूप में उसने बसप्पा नायक को गोद ले लिया. रानी चेन्नम्मा ने 25 साल तक राज किया. उनके शासन काल में कलेड़ी में शांति स्थापित हुई और राज्य में खुशहाली बढ़ी. उन्होंने अनेको मंदिरों का जीर्णोद्धार कर, वहां विशेष पूजा की व्यवस्था की तथा मठों को स्थापित करने के लिए भूमि दी.
चेन्नम्मा के प्रभाव को बढ़ते देखकर पडोसी राज्य मैसूर की सेना ने उस पर हमला कर दिया. उन्होंने मैसूर की सेना को दो बार परास्त किया. अंततः मैसूर के राजा को कलेड़ी से संधि करनी पड़ी. उन्होंने अन्य राज्यों के विद्वानों को कलेड़ी में बसने के लिए आमंत्रित किया. चेन्नम्मा बहुत ही धार्मिक विचारों की रानी थी और अपनी सभी विजयों का श्रेय भगवान् को देती थीं.
रानी चेन्नम्मा प्रार्थना और पूजा के बाद सन्यासियों को दान देती थीं. एक बार चार सन्यासी रानी के पास आये. इन चारों का व्यवहार सन्यासियों जैसा नहीं था जिसे रानी ने भांप लिया. रानी के पूछने पर इन चारों के सरदार ने बताया की वह छत्रपति शिवाजी का पुत्र राजाराम है. शिवाजी के पुत्र को इस हालत में देखकर रानी दंग रह गयी और दुःख हुआ.
उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि- हिन्दुओं की रक्षा करने वाले शिवाजी महाराज के पुत्र आज उनके राज्य में शरण चाहते हैं. राजाराम से औरंगजेब के अत्याचारों और उनके भाई संभाजी की हत्या के बारे में जानकार उनको बहुत दुःख हुआ. उन्होंने राजाराम और उसके साथियों को शरण दी और कर्मचारियों को निर्देश दिया कि- उनका विशेष अतिथियो की तरह ध्यान रखा जाए.
जब औरंगजेब को पता चला कि- केलाड़ी की रानी चेन्नम्मा ने शिवाजी महाराज के पुत्र को अपने राज्य में शरण दी हुई है तो उसने रानी चेन्नम्मा को सन्देश भेजा कि- शिवाजी के पुत्र को उनके हवाले कर दे वरना केलाड़ी पर आक्रमण कर उस नष्ट कर दिया जाएगा. रानी चेनम्मा ने सन्देश दिया कि - राजाराम की रक्षा की जायेगी उसे जो करना है कर ले.
तब औरंगजेब की सेना ने केलाड़ी पर आक्रमण कर दिया मगर रानी चेन्नम्मा के नेतृत्व में केलाड़ी की बहादुर सेना ने औरंगजेब की सेना का डट कर मुकाबला किया. केलाड़ी की भौगोलिक स्थिति से अनभिज्ञ मुग़ल सेना को कुदरती भूल भुलैया में उलझाकर उसका संहार करना शुरू कर दिया. तब अपने सैनिको की जान बचाने के लिए औरंगजेब रानी चेनम्मा से संधी करने को मजबूर हुआ.
ऐसी वीरांगना, धर्मपरायण और शरणागत वत्सल, केलाड़ी की रानी चेन्नम्मा को मेरा बार बार प्रणाम.





Prasoon Verma, Rajkumari Nair and 54 others
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Sunday, 25 July 2021

नेहरूजी की जेलयात्राओं का इतिहास

स्वातंत्र्यवीर सावरकर से तुलना करते समय, जवाहर लाल नेहरू जी को महान दिखाने के लिए कांग्रेसी अक्सर यह कहते हैं कि - नेहरू जी ने भी बहुत साल जेल में गुजारे थे. यह ठीक है कि नेहरू जी भी काफी दिन जेल में रहे पंरतु टुकड़ों मे. उन्होंने अपनी अधिकतर किताबे जेल में लिखी जबकि अन्य कैदियों को चिट्ठी लिखने की भी इजाजत नहीं होती थी. 


1. पहली बार (87 दिन) 6 दिसंबर 1921 से लेकर 3 मार्च 1922 तक ****************************************************************** 
नवंबर 1921 में प्रिंस ऑफ वेल्स का भारत दौरा हुआ. कांग्रेस वर्किंग कमिटी ने प्रिंस के दौरे का बहिष्कार किया. 6 दिसंबर को पुलिस ‘आनंद भवन’ पहुंची और नेहरू को गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें लखनऊ डिस्ट्रिक्ट जेल में बंद किया गया. उन्हें छह महीने जेल और 100 रुपया जुर्माना भरने की सजा मिली. लेकिन मात्र 87 दिन बाद रिहा कर दिया गया. 

2. दूसरी बार (266 दिन) 11 मई 1922 से 31 जनवरी 1923 तक *************************************************************** 
कांग्रेस ने मुसलमानो के धार्मिक आंदोलन (खिलाफत) के समांतर में अपना असहयोग आंदोलन शुरू किया. यह आंदोलन असफल हो गया था. तब 4 फरबरी 1922 को गोरखपुर के चौरी-चौरा में में हुई हिंसा का बहाना बनाकर, कांग्रेस ने 8 फरबरी 1922 को अपना आंदोलन वापस ले लिया और हिंसक प्रदर्शन करने वालों को अपना कार्यकर्ता मानने से इंकार कर दिया. 

इस बात से नाराज होकर जोशीले देशभक्तों ने कांग्रेस को छोड़ना शुरू कर दिया था और युवा गांधी / नेहरू आदि नेताओं के खिलाफ आवाज उठाने लगे.  ऐसे माहौल में एक दिन अचानक 11 मई 1922 को नेहरू जी खुद ही, लखनऊ जेल में किसी से मिलने गए. वहां उनको गिरफ्तार कर जेल में बंद कर दिया गया, जबकि उनके खिलाफ कोई मामला भी दर्ज नहीं था. 

कुछ समय बाद उनको इलाहाबाद जेल भेज दिया गया. नेहरू बिरोधियों का मानना यह था कि- चौरीचौरा काण्ड के आंदोलनकारियों का साथ न देने के कारण नेहरू / गांधी के खिलाफ रोष का माहौल था. इसलिए जनता के गुस्से से बचने के लिए खुद ही जेल चले गए थे. यह भी कहा गया कि- उन्हें 18 महीने सश्रम कारावास की सजा हुई है लेकिन वे नौ महीने में बाहर आ गए. 

3. तीसरी बार (12 दिन) 22 सितंबर 1923 से 4 अक्टूबर 1923 तक ****************************************************************** 
पंजाब की दो रियासतों नाभा और पटियाला में ठनी हुई थी. ब्रिटिश सरकार ने पटियाला का साथ देते हुए नाभा के राजा को गद्दी से हटा दिया. इससे सिख भड़क गए. सिखों के कई जत्थे नाभा पहुंचे. नेहरू वहां पहुंचकर एक जत्थे में शामिल हो गए. पुलिस ने उनसे नाभा से निकल जाने को कहा. मगर नेहरू और उनके साथी नहीं माने तो उन्हें भी जेल में डाल दिया गया. 

22 सितम्बर, 1923 को नेहरू, ए.टी. गिडवानी व के. सांतानम को नाभा रियासत में घुसने के कारण गिरफ्तार किया गया था. यह गिरफ्तारी जैतो पुलिस स्टेशन द्वारा की गई थी. इस बार नेहरूजी को कोई वीआईपी ट्रीटमेंट नहीं मिला बल्कि उनको, उनके साथियों के साथ हथकडिय़ां लगाकर नाभा जेल लाया गया था. यहाँ उन्हें अन्य कैदियों की तरह ही रखा गया. 

अपनी आत्मकथा में नेहरू ने इस सजा के बारे में लिखा है- मुझे, मेरे साथी ए टी गिडवानी और के संथानम को बहुत बुरी स्थितियों में नाभा जेल के अंदर रखा गया था. जेल की कोठरी बेहद गंदी थी. छोटी सी वो कोठरी नमी और सीलन से भरी थी. छत इतने नीचे था कि हाथ से छू सकते थे. रात को जब हम फर्श पर सोते थे तो चूहे हमारे ऊपर से गुजर जाते थे. 

एक हफ्ते में ही नेहरूजी की हालत खराब हो गई. नेहरूजी की कोई खबर न मिलने पर, उनके पिता मोती लाल नेहरू द्वारा उनके नाभा जेल में बंद होने का पता लगाया गया. तब मोतीलाल नेहरूजी ने तत्कालीन वायसराय से दखल देने की मांग की. वायसराय के दखल बाद ही नाभा रियासत द्वारा उनसे माफीनाम लेकर 12 दिन बाद जेल से छोड़ा गया था.

 4. चौथी बार (181 दिन) 14 अप्रैल 1930 से 11 अक्टूबर 1930 तक ****************************************************************** 
मार्च / अप्रेल 1930 में महात्मा गांधी के द्वारा नमक पर टैक्स के बिरोध में दांडी मार्च निकाला गया था, जिसमे कुल 78 लोगो ने अहमदाबाद के साबरमती आश्रम से समुद्रतटीय गाँव दांडी तक पैदल यात्रा करके 06 अप्रैल 1930 को नमक हाथ में लेकर कानून को भंग किया था. इसे देश की जनता ने अंग्रेजों पर गाँधीजी की जीत के तौर पर लिया. पूरे देश में जनता जोश में आ गई. 

जगह जगह जुलुस निकाले जाने लगे. इससे अंग्रेज सरकार परेशान हो गई और प्रदर्शनकारियों पर सख्ती बढ़ा दी. उस समय नेहरूजी कांग्रेस के अध्यक्ष थे. 14 अप्रैल 1930 को नेहरूजी "हिंदी प्रॉविंशल कॉन्फ्रेंस" में भाग लेने रायपुर जा रहे थे, रास्ते में उन्हें गिरफ्तार कर छह महीने के लिए इलाहाबाद की नैनी जेल में भेज दिया गया. 

5. पांचवीं बार (100 दिन) 19 अक्टूबर 1930 से 26 जनवरी 1931 तक ******************************************************************** 
नबम्बर 1930 में आगरा / फिरोजाबाद के किसानों ने अंग्रेज सरकार के खिलाफ आंदोलन चलाया कि- वे अंग्रेजी सरकार को लगान (टैक्स) नहीं देंगे. बिना किसी नेता के ग्रामीण किसानो द्वारा किये गए इस किसान आंदोलन को देश भर में चर्चित हो गया. इसे देश की जनता का समर्थन मिलते देख नेहरूजी ने भी किसानो का समर्थन करने की घोषणा कर दी. 

हमेशा अहिंसा की बात करने वाली कांग्रेस ने, ग्रामीण किसानो को उग्र प्रदर्शन करने के लिए उकसाया. अंग्रेजी सरकार ने उग्र किसानो के साथ साथ नेहरूजी को भी गिरफ्तार कर लिया. किसानो को भड़काने के इल्जाम में उन्हें 2 साल की सजा सुनाई गई लेकिन उन्हें 100 दिन बाद ही रिहा कर दिया गया. इस बार भी उन्हें इलाहाबाद की नैनी जेल में ही रखा गया. 

अपनी इस 100 दिन की जेल की सजा के दौरान उन्होंने अपनी 10 बर्षीय बेटी इंदिरा को कई चिट्ठियां लिखीं थी, जो आगे चलकर ‘ग्लिम्पसेज़ ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री’ में छपीं. इन चिट्ठियों का संकलन "पिता के पत्र पुत्री के नाम" से कई अलग अलग भाषाओं में प्रकाशित हुआ. वैसे आप जब इसे पढ़ेंगे तो लगेगा नहीं कि - यह 10 बर्ष की बेटी के लिए किसी पिता का खत है.

 6. छठी बार (614 दिन) 26 दिसंबर 1931 से 30 अगस्त 1933 तक ****************************************************************** 
आगरा और फिरोजाबाद के गाँवों से शुरु हुआ, किसान आंदोलन सारे देश में फैलने लगा था. जगह जगह किसानो ने सरकार को लगान देने से इंकार कर दिया. नेहरूजी ने भी इसका समर्थन करते हुए कहा कि -जब तक सरकार किसानों की परेशानियां दूर नहीं करती है तब तक किसानो को लगान नहीं देना चहिये. उनकी इस अपील का किसानो पर असर हुआ.

इसे दबाने के लिए सरकार अध्यादेश लाई कि- अगर किसान लगान देने से इनकार करता है तो इसे अपराध माना जाएगा. किसानो को भड़काने के आरोप में नेहरूजी को भी गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें दो साल जेल और 500 रुपय जुर्माने की सजा सुनाई गई. उन्हें पहले नैनी, फिर बरेली, फिर देहरादून, फिर वापस नैनी जेल में कुल 614 दिन रखा गया. 

7. सातवीं बार (558 दिन) 12 फरवरी 1934 से 3 सितंबर 1935 तक ******************************************************************* 
अब तक कांग्रेस भी आजादी की लड़ाई में कूद चुकी थी और वह भी स्वायत्तशासी उपनिवेश के बजाय पूर्ण स्वराज की मांग करने लगी थी. 17 और 18 जनवरी 1934 को नेहरूजी ने कलकत्ता के अल्बर्ट हॉल में उन्होंने सभाएं की. यहां दिए गए भाषणों की वजह से उनके ऊपर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज हुआ और उन्हें इलाहाबाद से गिरफ्तार कर लिया गया.

 इस बार नेहरूजी को दो साल जेल की सजा सुनाई गई लेकिन उन्हें कुल 558 दिन जेल में बिताने पड़े. इस बार उन्हें पहले अलीपुर सेंट्रल जेल में रखा गया फिर देहरादून जेल भेजे गए. फिर नैनी सेंट्रल जेल और वहां से अल्मोड़ा जेल. उन्हें राजनीतिक कैदी मानते हुए सरकार ने इस बात का ध्यान रखा कि - गरमी में पहाड़ पर और सर्दी में मैदान में रखा जाए. 

8. आठवीं बार (399 दिन) 31 अक्टूबर 1940 से 3 दिसंबर 1941 तक ******************************************************************** 
दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो चुका था. सुभाष चंद्र बोस और उनकी आजाद हिन्द फ़ौज ने अंग्रेजो के खिलाफ जर्मनी का साथ देने का ऐलान कर दिया था. ऐसे में कांग्रेस ने अपनी एक वॉर कमिटी बनाई, नेहरू जी जिसके अध्यक्ष थे. इस कमिटी ने कहा कि - अगर ब्रिटिश सरकार भारत को आजाद करने का बचन दे तो विश्वयुद्ध में भारतीय ब्रिटिश सरकार का साथ देंगे. 

इसको सत्याग्रह नाम दिया गया. इस सत्याग्रह के सिलसिले में नेहरू जी ने 6 / 7 अक्टूबर 1940 को गोरखपुर में कुछ भाषण दिए. इन भाषणों की वजह से उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें चार साल सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई मगर मात्र सवा साल के बाद ही रिहा कर दिया गया. उन्हें अहमद किले में बनाई गई अस्थाई जेल में बंद कर दिया गया. 

अहमद किले में मौलाना आजाद और सरदार पटेल भी उनके साथ थे. उनके लिए लिखने और पुस्तकालय की सुविधा भी जुटाई गई थी. यही रहते हुए नेहरू जी ने अपनी प्रशिद्ध पुस्तक "डिस्कवरी ऑफ़ इण्डिया" लिखी थी और मौलाना आजाद ने अपनी किताब "ग़ुबार-ए-ख़ातिर" लिखी थी. अर्थात सश्रम कारावास में किताबे लिखने का श्रम किया गया था. 

9. नौवीं बार (1,041 दिन) 9 अगस्त 1942 से 15 जून, 1945 तक ***************************************************************** 
ये आखिरी बार था, जब नेहरूजी जेल में डाले गए थे. ये उनके द्वारा जेल में बिताया गया उनका सबसे लंबा समय था. विश्व युद्ध में इंग्लैण्ड को बुरी तरह उलझता देख कर और नेताजी सुभाष चंद्र बोस को मिल रही सफलता और समर्थन को देखकर, गान्धी जी ने मौके की नजाकत को भाँपते हुए 8 अगस्त 1942 को "भारत छोड़ो आंदोलन" प्रारम्भ किया. 

9 अगस्त को गांधीजी को सरकारी सुरक्षा में आगा खान पैलेस में भेज दिया गया. 9 अगस्त को ही नेहरूजी को भी गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें पहले अहमदनगर किले की जेल में बंद रखा गया. वहां से उन्हें बरेली सेंट्रल जेल भेजा गया. उनको बरेली क मौसम पसंद नहीं आया तो उन्हें अल्मोड़ा भेज दिया गया .

इस बार नेहरूजी ने कुल 1,041 दिन जेल में बिताये थे. कहा जाता है कि - जिस तरह गांधीजी को जेल के नाम पर सुविधाओं से युक्त आगा खान पैलेस में रखा गया था उसी तरह नेहरूजी को भी अलमोड़ा के पहाड़ी जंगल में बने "डाक बंगले" की सुविधा दी गई थी. 

तो यह था नेहरू जी की जेल यात्राओ का इतिहास. क्या नेहरूजी की जेल यात्रा की तुलना "स्वतंत्र्यवीर सावरकर" की कालापानी की सजा से की जा सकती है ?