Thursday, 19 November 2020

इंदिरा गांधी ने पापिस्तान के नहीं बल्कि दो बार कांग्रेस के दो टुकड़े किये थे.

इंदिरा गांधी ने पापिस्तान के नहीं बल्कि कांग्रेस के दो टुकड़े किये थे. लाल बहादुर शास्त्री जी की हत्या के बाद कांग्रेस के नेता मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे लेकिन नेहरु के बफादारों ने इंदिरा गांधी को आगे कर दिया. उसके बाद इंदिरा गांधी ने 1969 में कांग्रेस के सीनियर नेताओं को खुड्डे लाइन लगाकर कांग्रेस को दो फाड़ कर दिया था.

इंदिरा गाँधी गुट ने कांग्रेस (आर) बनाया था और कांग्रेस के सीनियर नेता मोरारजी देसाई और कामराज आदि ने कांग्रेस (ओ). पहले कांग्रेस का चुनाव चिन्ह था "बैलों की जोड़ी". कांग्रेस को तोड़ने के बाद इंदिरा ने कांग्रेस (आर) के लिए "गाय और बछड़ा" चुनाव चिन्ह लिया और कामराज गुट को चुनाव चिन्ह मिला था "चरखा"
इलेक्शन सिम्बल के तौर पर मिला और 1977 के चुनावों में जब इंदिरा की बुरी तरह से हार हुई थी, तो एक बार फिर इंदिरा गांधी ने कांग्रेस को दोफाड़ किया और प्रभावशाली नेताओं को दरकिनार कर एक नई पार्टी बनाई थी जिसको नाम दिया था कांग्रेस (आई). अर्थात कांग्रेस (इंदिरा). और पार्टी का नया चुनाव चिन्ह बनाया था, "हाथ का पंजा"
अब बात करते हैं पापिस्तान के दो टुकड़े करने की. तो भारत पापिस्तान का युद्ध हुआ था 4 दिसंबर 1971 से 16 दिसंबर 1971 तक. और बंगलादेश पापिस्तान से अलग हुआ था 26 मार्च 1971 को. इसके अलाबा भरत - पापिस्तान के उस युद्ध को भी सेना ने बहुत ही सीमित संशाधनो के साथ लड़ा था और अपनी बहादुरी के दम पर जीता था.
3 दिसम्बर को पापिस्तान द्वारा भारत पर किये गए हवाई हमले (आपरेशन चंगेज खान) के बाद भी इंदिरा गांधी युद्ध का निर्णय नहीं ले पा रही थी. तब जनरल मानेकशा ने कहा था कि- आप घोषणा करती हैं या फिर मैं खुद युद्ध की घोषणा करू ? उस युद्ध की घोषणा के बाद युद्ध की सारी कमान जनरल मानेकशा के हाथ में थी.
जनरल मानेकशा ने तो नेताओं के द्वारा, युद्ध को लेकर कोई बयान तक देने पर रोक लगा दी थी. उस 14 दिन के भीषण युद्ध में भारतीय सेना ने बहुत सीमित संसाधनों के साथ पापिस्तान को शिकस्त दी थी. इंदिरा गांधी या उनकी सरकार का काम था सेना को अधिक से अधिक आधुनिक हथियार उपलब्ध कराना जिसमे वह नाकाम रही थी.
भारतीय सेना ने अपनी बहादुरी और कुर्बानियों के द्वारा पापिस्तान पर जो जीत हाशिल की थी, इंदिरा गांधी ने तो उस जीत को ही "शिमला समझौते" के द्वारा हार में बदल दिया था. युद्ध के बाद जब सेना बैरकों में वापस लौट गई तब कांग्रेसियों ने इंदिरा का ऐसे गुणगान शुरू कर दिया जैसे युध्ह इंदिरा गांधी ने खुद लड़ा हो.

Sunday, 13 September 2020

AIIMS की संस्थापक राजकुमारी अमृत कौर अहलूवालिया

राजकुमारी अमृत कौर आहलुवालिया का जन्म 2 फ़रवरी 1889 को उत्तर प्रदेश राज्य के लखनऊ नगर में हुआ था. इनकी उच्च शिक्षा इंग्लैंड में हुई. ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से एम. ए. पास करने के उपरांत वह भारत वापस लौटीं. वे रेडक्रास के साथ जुड़ गई और विश्वयुद्ध के दौरान अपनी उल्लेखनीय सेवाएं दी.

1945 में यूनेस्को की बैठकों में सम्मिलित होने के लिए जो भारतीय प्रतिनिधि दल लंदन गया था, वे उसकी उपनेत्री थी. 1946 में जब यह प्रतिनिधिमंडल यूनेस्को की सभाओं में भाग लेने के लिए पेरिस गया, तब भी वे इसकी उपनेत्री (डिप्टी लीडर) थीं. 1948 और 1949 में वे 'आल इंडिया कॉन्फ्रेंस ऑफ सोशल वर्क' की अध्यक्षा रहीं.
1947 से लेकर 1957 तक वे भारत सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रहीं. 1950 में वे "वर्ल्ड हेल्थ असेंबली" की अध्यक्षा निर्वाचित हुई. 1950 से 1964 वे "लीग ऑफ रेडक्रास सोसाइटीज' की सहायक अध्यक्ष रहीं. 1948 से 1964 १९६४ तक "सेंट जॉन एमबुलेंस ब्रिगेड" की चीफ कमिशनर तथा "इंडियन कौंसिल ऑफ चाइल्ड वेलफेयर" की मुख्य अधिकारिणी रहीं.
1957 में नई दिल्ली में उन्नीसवीं इंटरनेशनल रेडक्रास कॉन्फ्रेंस राजकुमारी अमृत कौर आहलुवालिया की अध्यक्षता में हुई. राजकुमारी को खेलों से बड़ा प्रेम था. नेशनल स्पोर्ट्स क्लब ऑव इंडिया की स्थापना इन्होंने की थी और इस क्लब की वह अध्यक्षा शुरु से रहीं. उनको टेनिस खेलने का बड़ा शौक था. कई बार टेनिस चैंपियनशिप उनको मिली.
वे "हिंद कुष्ट निवारण संघ' की संस्थापक अध्यक्ष थी, इसके अलावा वे 'जलियावाला बाग नेशनल मेमोरियल ट्रस्ट की ट्रस्टी", "कौंसिल ऑफ साइंटिफिक एन्ड इंडस्ट्रियल रिसर्च" की गवनिंग बाडी की सदस्या भी थीं. राजकुमारी एक विदुषी महिला थीं, उन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय, स्मिथ कालेज, वेस्टर्न कालेज, मेकमरे कालेज आदि से डाक्ट्रेट मिली थी.
उन्होंने हिमाचल के मंडी से उन्होंने पहला चुनाव लड़ा था व आजाद भारत की पहली स्वास्थ्य मंत्री रही. दिल्ली में एम्स की स्थापना के लिए सबसे ज्यादा श्रेय उन्ही को जाता है. अनेको देशो में घूमने और रेडक्रास जैसी संस्थाओं के साथ जुड़े होने के कारण उनके मन में एक बहुत बड़े हस्पताल और मेडिकल कालेज की रूपरेखा बनी हुई थी.
राजकुमारी अमृत कौर ने जब नेहरू के सामने एक ऐसा हॉस्पिटल बनाने का प्रस्ताव रखा तब नेहरू ने फंड की कमी का हवाला देकर मना कर दिया. तब उन्होंने अपनी 100 एकड़ पैतृक जमीन बेचकर एम्स के लिए प्रारम्भिक पूंजी की व्यवस्था की. उसके बाद उन्होंने अनेको राजपरिवारो तथा तथा विदेशी संस्थाओं से चंदा लेकर एम्स का निर्माण कराया.
वे एम्स की अध्यक्षा भी रहीं. उन्होंने मनाली और शिमला के अपने बंगले भी एम्स के नाम कर दिए जिससे कि- एम्स में काम करने वाले डॉक्टर / नर्स छुट्टियां मनाने के लिए वहां रुक सके. इंग्लैण्ड में रहने के दौरान राजकुमारी अमृत कौर ईसाई धर्म अपना लिया था लेकिन भारत में आने के बाद उनका रुझान फिर से हिन्दू और सिक्ख धर्म की तरफ हो गया था.
उनकी मृत्यु 2 अक्टूबर 1964 को दिल्ली में हुई. उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा के रूप में कहा था कि - उनके शव को ईसाईयों की तरह दफनाया न जाए बल्कि उनका अग्नि संस्कार किया जाए. उनकी अंतिम इच्छा का मान रखा गया और उनका अंतिम संस्कार भारतीय पद्धति के साथ किया गया. राजकुमारी जी को सादर नमन

Thursday, 3 September 2020

नरपति सिंह रैकवार

राजा नरपति सिंह रैकवार माधोगंज रुइयाँ के राजा थे. 1867 में अनेकों देशी रियासतों में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह के सुर उठने लगे थे. ऐसे में एक दिन नाना साहब पेशवा का एक दूत रोटी का टुकड़ा और कमल का फूल लेकर रुइया गढ़ी स्थित नरपति सिंह के दरबार में पहुंचा.

कमल क्रांति का चिन्ह व रोटी का टुकडा सभी जाति -वर्ग में भाईचारे व संगठन का प्रतीक था । रुइया नरेश ने इसे स्वीकार करते हुए नाना साहब को पैगाम भेजा और संकल्प लिया की जब तक जिन्दा रहूँगा तब तक देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने के लिए संघर्ष करता रहूँगा.
नरपति सिंह रैकवार जी ने नाना साहब को यह भी सन्देश दिया कि सारी देशी रियासतें मई माह में एक साथ अंग्रेजों पर हमला करना चाहिए. नरपति सिंह ने सगे भाई बेनी सिंह को मुख्य सेनापति बनाकर तीन कमान बनाई , जिसका नेतृत्व बस्ती सिंह, लखन सिंह व बद्री ठाकुर कर रहे थे.
लेकिन इसी बीच 29 मार्च, 1857 को बैरकपुर छावनी में सैनिक मंगल पाण्डेय ने विद्रोह कर दिया. इसके कुछ दिन बाद लखनऊ में भी विद्रोह हो गया. उस समय अंग्रेजी फौज ने मल्लावां को हेड क्वाटर बना रखा था. अंग्रेजों ने लखनऊ को घेरने के लिए सेना भेजने का आदेश दे दिया,
मल्लावां के डिप्टी कमिशनर डब्लू. सी. चैपर को जब विद्रोह का समाचार मिला तो उन्होंने अंग्रेजी सेना के सचिव कैप्टन हैचिनशन को माधौगंज की ओर न जाने की सलाह दी, लेकिन हैचिनशन अपनी जिद पर अड़ा रहा और अपनी सेना को माधोगंज की तरफ भेज दिया.
लेकिन नरपति सिंह और बरुआ के गुलाब सिंह ने अपनी सेना के साथ अंग्रेजी सेना का रास्ता रोक लिया. 15 मई 1857 को संडीला में भीषण युद्ध हुआ और उन्होंने अंग्रेज सेना का वो हाल किया कि लगभग डेढ़ साल तक अंग्रेज हरदोई जिले में पैर नहीं जम सके.
संडीला की लड़ाई में जीत के बाद रुइयाँ अंग्रेजों के दुश्मनो का केंद्र बन गया. देशी रियासतों के राजा और सैनिको के साथ साथ स्वतंत्र रूप से अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहे स्वाधीनता सेनानी भी रुइयाँ पहुँचने लगे. यह देखकर हैचिनशन वहां से भाग गया.
पास की एक छोटी रियासत "गंजमुरादाबाद" का नवाब अंग्रेजों का पिट्ठू था. 3 जून 1857 रुइया नरेश ने गंजमुरादाबाद पर आक्रमण कर नवाब को पकड़ लिया तथा उसके भतीजे को नवाब बना दिया. इससे डिप्टी कमिशनर चैपर भी बौखला गया और अक्रामक हो उठा.
8 जून 1857 को नरपति सिंह कुछ क्रांतिकारियों को लेकर मल्लावां पर चढ़ाई कर दी. तब चैपर भागकर संडीला चला गया. क्रांतकारियों ने बड़ी संख्या में अंग्रेजों का कत्लेआम किया और देशी मूल के अंग्रेजी सैनिकों को कैद कर लिया तथा तहसील, अदालत व थाना फूंक दिया.
इसके अलावा उन्होंने बरबस के सोमवंशी मुआफ़िदारो के मुखिया माधोसिंह (जिसे अवध को शासन में मिलाने के बाद अंग्रेजों ने थानेदार नियुक्त किया था) पर आक्रमण कर उसकी बस्ती को जला दिया और अंग्रेजों के पिट्ठू माधोसिंह को भी कैद कर लिया.
राजा नरपति सिंह का रौद्र रूप देखकर अंग्रेज और अंग्रेजों के भारतीय चमचे दहल गए. नाना साहब पेशवा के कहने पर के बिठूर से तात्या टोपे और फैजाबाद से मौलवी लियाकत अली भी उनसे मिलने आये और साथ मिलकर अंग्रेजों से लड़ने पर सहमति बनाई.
उधर दिल्ली के बादशाह बहादुर शाह जफ़र को अंग्रेजों ने कैद कर लिया और अंग्रेज अफसर हडसन ने बादशाह के सामने ही उनके दो बेटों को मौत के घाट उतार दिया. बादशाह का बड़ा शहजादा फिरोजशाह किसी तरह से भागकर संडीला पहुंचा और राजा नरपति सिंह से मुलाक़ात की.
राजा के इशारे पर फिरोजशाह के वीर साथी लक्कड़ शाह ने संडीला के आस-पास का क्षेत्र स्वंतत्र कर लिया तथा मौलवी लियाकत अली ने बिलग्राम, सांडी, पाली और शाहाबाद तक अंग्रेज परस्तों को मार गिराया. इस लड़ाई के मुख्य रणनीतिकार नरपति सिंह रैकवार ही थे,
उनकी विजय को देखकर शिवराजपुर के राजा सती प्रसाद सिंह तथा बांगरमोऊ के ज़मीदार जसा सिंह भी वहां आकर राजा के सहयोगी बन गए. बेरुआ स्टेट के सरबराकार गुलाब सिंह लखनऊ, रहीमाबाद व संडीला की लड़ाई लड़ते हुए नरपति सिंह के सहयोग में आ मिले.
अब तक अंग्रेजों से लड़ाई देश के काफी बड़े हिस्से में फ़ैल चुकी थी. कई जगह अंग्रेज जीत रहे थे और कई जगहों पर भारत के स्वाधीनता सेनानी. लेकिन कोई भी अंग्रेज अधिकारी नरपति सिंह रैकवार का सामना करने जाने की हिम्मत तक नहीं कर पा रहा था.
अंततः अंग्रेजों ने अपने बहुत बड़े अधिकारी ब्रिगेडियर होप के साथ 10 लेफ्टिनेंट वाली एक बड़ी फ़ौज भेजी. 15 अप्रैल 1818 को राजा नरपत सिंह एवं अंग्रेजी सेना के बीच युद्ध हुआ जिसमें राजा नरपति सिंह जी की सेना ने ब्रिगेडियर होप एवं पांच लेफ्टिनेंट कर्नल सहित 58 अंग्रेज सैनिकों को मार गिराया
उन्होंने अंग्रेजी सेना को सवाजपुर तक खदेड़ दिया. ब्रिगेडियर होप अंग्रेजों की रानी विक्टोरिया का सगा ममेरा भाई था. जब लन्दन में ब्रिगेडियर होप की मौत की खबर पहुंची तो इनलैंड का झंडा झुका दिया गया और सात दिन का राष्ट्रीय शोक घोषित किया गया
माधौगंज में स्थित रुइया नरेश श्री नरपति सिंह का किला इस समय जीर्ण-शीर्ण हालत में पहुंच चूका है. मेरा योगी सरकार से निवेदन है कि उस किले का जीर्णोद्धार कराया जाए जिससे कि लोग यहाँ आकर आजादी की लड़ाई के नायकों को श्रद्धंजलि दे सकें.

इस विजय के उपलक्ष में राजा नरपत सिंह स्मारक संस्थान हर साल 15 अप्रैल को बड़ी धूमधाम से विजय दिवस समारोह मनाती है. इस बर्ष कोरोना महामारी के कारण यह समारोह स्थगित किया गया है. लेकिन हम अपने घर पर तो उन्हें याद कर ही सकते हैं
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Monday, 17 August 2020

संघ कार्यालय पर तिरंगा फहराने से रोकने का सच

अंधबिरोधियों द्वारा अपने कुकर्मो को छुपाने के लिए संघ को बदनाम करने के लिए झूठे किस्से गढ़ने की एक पुरानी परम्परा रही है. आज देश की जनता जिन पार्टियों की सच्चाई को जानकार ठुकरा चुकी है वो अपने ऊपर लगे सच्चे आरोपों की सफाई तो दे नहीं पाते हैं इसलिए बचने के लिए संघ पर ही झूठे आरोप मढ़ने की कोशिश करते हैं.
इस बार यह लोग सन 2001 के एक केस का हवाला देकर यह साबित करना चाहते हैं कि- संघ ने तिरंगा फहराने पर कांग्रेसियों पर केस किया था. उनका कहना है कि- 3 जुलाई 2001 को, तीन कांग्रेसी युवक नागपुर में संघ हेडक्वार्टर पहुंचे. उनके पास भारत का राष्ट्रीय ध्वज था. वे उस बिल्डिंग पर राष्ट्रीय झंडा फहराना चाहते थे.
वहां मौजूद संघ के बड़े नेताओं ने उनको ऐसा नहीं करने दिया, उनसे झंडा छीन लिया और उनको पकड़कर उन पर पुलिस केस कर दिया. आइये अब इस मामले की सच्चाई जानते है. पहली बात तो यह कि - इस मामले में आरएसएस न तो वादी था और न प्रतिवादी, बल्कियह मामला "राज्य सरकार' बनाम "विजय और अन्य" था.
सन 2001 में महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार थी और विलास राव देशमुख महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे. जैसा कि- हम सभी जानते हैं कि अनेकों महत्वपूर्ण इमारतो की तरह नागपुर के संघ कार्यालय को भी सरकारी सुरक्षा मिली हुई है. केवल अधिकृत व्यक्ति ही वहां जा सकता है. किसी भी अनधिकृत व्यक्ति को रोकना पुलिस
का काम होता है.
3 जुलाई 2001 को तीन युवक जो अपने आपको कांग्रेसी बताते थे ( कोर्ट में कांग्रेस ने उनको अपना कार्यकर्ता मानने से इंकार कर दिया था ), बिना अनुमति के उस क्षेत्र में नारे लगाते हुए घुसने लगे. जब उनको पुलिस वालों ने रोका तो वे पुलिस से उलझ पड़े. कहने लगे कि- हम कांग्रेसी हैं और राज्य में सरकार भी हमारी है.
पुलिस ने उनको गिरफ्तार कर सुरक्षित क्षेत्र में अनाधिकृत प्रवेश करने और पुलिस कर्मियों से अभद्रता करने का केस दर्ज कर लिया. पुलिस ने उनसे झंडा जब्त कर लिया और उनको गिरफ्तार कर जेल भेज दिया. उनको उकसाने वाले कांग्रेसी नेता भी फिर कहीं दिखाई नहीं दिए और बाद में उनको खुद ही अपना केस लड़ना पड़ा.
यदि हम में से कोई आज भी संघ कार्यालय तो क्या - सोनिया गांधी के घर, केजरीवाल के घर, कांग्रेस मुख्यालय, अथवा किसी भी VIP के घर (जहाँ सरकार द्वारा सुरक्षा दी जाती हो) बिना अनुमति जबरन घुसना चाहे तो पुलिस रोकेगी ही और न मानने पर उसके खिलाफ FIR भी दर्ज करेगी. चाहे आप किसी भी उद्देश्य से ऐसा कर रहे हो.
अब दूसरी बात, झंडा संहिता के अनुसार, 26 जनवरी 2002 तक किसी भी गैर सरकारी इमारत पर तिरंगा फहराना गैर कानूनी होता था. जिन सरकारी इमारतों पर तिरंगा झंडा फहराया भी जाता था , वहां भी झंडा फहराने और उतारने के लिए स्पष्ट निर्देश निर्धारित थे. केवल 15 अगस्त / 26 जनवरी को ही आम लोग झंडा फहरा सकते थे.
झंडे को फहराने और उतारने के लिए नियम कांग्रेस सरकार द्वारा ही बनाय गए थे. कांग्रेस के ही एक नेता "नवीन जिंदल' द्वारा यह मुद्दा उठाने के बाद, "अटल बिहारी बाजपेई" की सरकार ने "नेहरू काल' से चली आ रही झंडा संहिता में परिवर्तन किया था. उसके बाद 26 जनवरी 2002 के बाद ही गैर सरकारी इमारतों पर तिरंगा फहराने की अनुमति मिली थी.
लेकिन इसके लिए भी झंडा फहराने और उतारने के स्पष्ट निर्देश दिए हैं जिनका कड़ाई से पालन करना होता है. जबकि वे तथाकथित कांग्रेसी युवक झंडा लेकर केवल उपद्रव करने के उद्देश्य से ही ऐसा कर रहे थे. उन युवको को इसीलिए जेल जाना पड़ा. यह मामला आरएसएस का नहीं था बल्कि "राज्य सरकार' बनाम "विजय और अन्य" था
अभी कुछ साल पहले इंदौर में भी कुछ कांग्रेसियों ने ऐसा करने का प्रयास किया था. वे लोग भीड़ इकट्ठी कर नारेबाजी करते हुए संघ कार्यालय की ओर चल पड़े. उनको पता था उनको रोका जाएगा और उन्हें हंगामा करने का मौका मिलेगा. परन्तु संघ के स्वयंसेवकों को इसकी खबर पहले ही लग गई और उन्होंने कार्यालय स्वागत की तैयारी कर ली.
उन्होंने कार्यालय में तिलक लगाने और चाय नाश्ता कराने इंतजाम कर लिया. सुरक्षा में लगे पुलिस वालों को भी निर्देश दे दिया कि- भीड़ में से कुछ प्रतिनिधियों को कार्यालय में भेज दिया जाए. जब वे लोग कार्यालय में आये तो भगवा तिलक लगा कर कांग्रेसियों का स्वागत किया. कांग्रेसियों को खुद छत पर साथ लेकर झंडा फहराने गए.
उन कांग्रेसियो को चाय नाश्ता कराया और उनसे यह भी आग्रह किया कि - सूर्यास्त से पहले झंडा उतारना होता है इसलिए आप शाम को समय से आ जाएँ. अब शाम को उन्होंने क्या आना था ? वो तो केवल विवाद पैदा करने के उद्देश्य से गए थे और यह काम वो कर नहीं पाए . भगवा को बदनाम करने गए कांग्रेसी अपना माथा भगवा कराकर वापस आये थे.
नागपुर वाली उस घटना को लेकर आजकल कांग्रेसी उस शर्मिंदगी से बचने के लिए अपनी पोस्ट में 3 जुलाई 2001 के बजाय 26 जनवरी 2001 लिखते है. अपनी फेसबुक पोस्ट पर चाहें यह कुछ भी लिख लें लेकिन इसकी ऑफिसियल FIR 3 जुलाई 2001की ही दर्ज है. जो महाराष्ट्र में कांग्रेस सरकार के दौर में ही दर्ज की गई थी.


Saturday, 20 June 2020

चीन के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य बनने में नेहरू का योगदान

RSTV Vishesh - 16 August 2019: United Nations Security Council ...द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, विश्व में स्थाई शान्ति बनाने के उदेश्य से 24 अक्टूबर 1945 को "संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद" का गठन किया गया. इस समय संयुक्त संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में 5 स्थायी और 10 अस्थायी सदस्य हैं. स्थायी सदस्य हैं अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस और ब्रिटेन. फिलहाल भारत इसका अस्थाई सदस्य है.
भारत काफी समय से स्थायी सदस्यता की मांग कर रहा है. अमेरिका और फ्रांस जैसे कई देश उसका समर्थन कर चुके हैं. भारत में बहुत सारे लोग यह मानते हैं कि- अगर नेहरू ने गलती न की होती तो चीन के बजाय भारत इसका स्थाई सदस्य होता वहीँ, कांग्रेसी सफाई देते हैं कि - चीन तो 24 अक्टूबर 1945 से ही स्थाई सदस्य है.
तो फिर आखिर सच क्या है ? वास्तविकता यह है कि- ब्रिटिश काल से ही भारत, संयुक्त राष्ट्र संघ का संस्थापक सदस्य है. जनवरी 1942 में बने पहले संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करने वाले 26 देशों में उसका नाम था. 25 अप्रैल 1945 को सैन फ्रांसिस्को में 50 देशों के संयुक्त राष्ट्र स्थापना सम्मेलन में भारत ने प्रतिनिधित्व किया था.
इस सारी प्रक्रिया के दौरान स्वतंत्रता के बाद भारत को भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता दिये जाने की चर्चा हुई थी. हवा का रुख भारत के अनुकूल ही था. लेकिन कहा जाता है कि - जवाहरलाल नेहरू की गलती के कारण इस संभावना पर पूर्णविराम लगा दिया था. आइए, इस ऐतिहासिक चूक की कहानी जानते हैं.
चीन उस समय "च्यांग काई शेक" की "कुओमितांग पार्टी" और "माओ त्से तुंग" की "कम्युनिस्ट पार्टी" के बीच चल रहे गृहयुद्ध में उलझा हुआ था. चीन के नाम की सीट 1945 में च्यांग काई शेक की सरकार को दी गयी. कम्युनिस्टों से घृणा करने वाले "अमेरिका', "ब्रिटेन" तथा "फ्रांस" किसी साम्यवादी चीन को सुरक्षा परिषद में नहीं चाहते थे.
चीन के गृहयुद्ध में अंततः कम्युनिष्टों को विजय मिली. 1 अक्टूबर 1949 को चीन की मुख्य भूमि पर उन्हीं की सरकार बनी. "च्यांग काई शेक" को अपने समर्थकों के साथ भाग कर ताइवान द्वीप पर शरण लेनी पड़ी. वहां उन्होंने अपनी एक अलग सरकार बनाई. तभी से ताइवान, कम्युनिस्ट चीन के विरोधी चीनियों का ही एक अलग देश है.
इन्हीं परिस्थितियों के बीच 15 अगस्त 1947 को भारत, ब्रिटिश शासन से आजाद हो गया और जवाहरलाल नेहरू भारत के अंतरिम प्रधानमंत्री बने. नेहरू ही भारत के प्रथम विदेशमंत्री भी थे. समाजवाद की रूसी और चीनी अवधारणाओं से वे निजी तौर से काफी काफ़ी प्रभावित थे और उनके निजी बिचार ही देश की विदेशनीति हुआ करते थे.
यही कारण था कि- जब चीन में "माओ त्से तुंग" ने गृहयुद्ध के बाद अपनी "कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार" बनाई तो उसे वैश्विक राजनयिक मान्यता देने वाले देशों की पहली पांत में भारत भी खड़ा हो गया था. जबकि उस समय अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्रांस, अदि ने इस पर कोई निर्णय नहीं लिया था. ऩेहरू को विश्वास था कि ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ बनेंगे.
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने ...चीन की कम्युनिस्ट सरकार को मान्यता देने के बाद नेहरूजी को अपनी बहन विजयलक्ष्मी पंडित का एक पत्र मिला. विजयलक्ष्मी पंडित उस समय अमेरिका में भारत की राजदूत थीं. इस पत्र में विजयलक्ष्मी पंडित ने अपने भाई और भारत के प्रधानमंत्री को जो कुछ लिखा था वह इस प्रकार है :-
अमेरिका के विदेश मंत्रालय में चल रही एक बात आपको भी मालूम होनी चाहिये. अमेरिका की नजर में सुरक्षा परिषद की सीट पर इस समय चीन नहीं बल्कि "च्यांग काई शेक" के नेतृत्व वाला "ताइवान" है. अमेरिका सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता वाली सीट पर से ताइवान (चीन) को हटा कर उस पर भारत को बिठाना चाहता है.
पिछले सप्ताह मैंने, जॉन फ़ॉस्टर डलेस और फ़िलिप जेसप से बात की थी. दोनों ने यह सवाल उठाया और डलेस कुछ अधिक ही व्यग्र लगे कि- इस दिशा में कुछ किया जाना चाहिये. पिछली रात वॉशिंगटन के प्रभावशाली कॉलम-लेखक मार्क़िस चाइल्ड्स से मैंने सुना कि डलेस ने विदेश मंत्रालय की ओर से इसके पक्ष में जनमत बनाने को कहा है.
जॉन फ़ॉस्टर डलेस 1950 में अमेरिकी विदेश मंत्रालय के एक शांतिवार्ता-प्रभारी हुआ करते थे. 1953 से 1959 तक वे अमेरिका के विदेशमंत्री भी रहे. फ़िलिप जेसप एक न्यायविद और अमेरिकी राजनयिक थे जो नेहरू से मिल चुके थे. (विजयलक्ष्मी का यह पत्र और नेहरू के जबाब वाला पत्र ‘नेहरू स्मृति संग्रहालय एवं पुस्तकालय’ में रखा हैं)
अपने उत्तर में जवाहरलाल नेहरू ने लिखा :- ‘तुमने लिखा है कि (अमेरिकी) विदेश मंत्रालय, सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता वाली सीट से चीन को हटा कर भारत को उस पर बिठाने का प्रयास कर रहा है. जहां तक हमारा प्रश्न है, हम इसका अनुमोदन नहीं करेंगे. हमारी दृष्टि से यह एक बुरी बात होगी और यह चीन का अपमान होगा.
यह चीन तथा हमारे बीच एक तरह का बिगाड़ भी होगा. मैं समझता हूं कि (अमेरिकी) विदेश मंत्रालय इसे पसंद तो नहीं करेगा, किंतु इस रास्ते पर हम नहीं चलना चाहते. हम संयुक्त राष्ट्र में और सुरक्षा परिषद में चीन की सदस्यता पर बल देते रहेंगे. मेरा समझना है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा के अगले अधिवेशन में इस विषय को लेकर एक संकट पैदा होने वाला है.
जनवादी चीन की सरकार अपना एक पूर्ण प्रतिनिधिमंडल वहां भेजने जा रही है. यदि उसे वहां जाने नहीं दिया गया, तब समस्या खड़ी हो जायेगी. यह भी हो सकता है कि सोवियत संघ और कुछ दूसरे देश भी संयुक्त राष्ट्र को अंततः त्याग दें. यह (अमेरिकी) विदेश मंत्रालय को मनभावन भले ही लगे, लेकिन उस संयुक्त राष्ट्र का अंत बन जायेगा, जिसे हम जानते हैं. इसका एक अर्थ युद्ध की तरफ और अधिक लुढ़कना भी होगा.’
उस समय सोवियत संघ जनवरी 1950 से क़रीब आठ महीनों तक सुरक्षा परिषद की बैठकों में भाग नहीं ले रहा था. ऐसा उसने चीन के गृहयुद्ध में कम्युनिस्टों की विजय और 1 अक्टूबर 1949 को वहां उनकी सत्ता स्थापित होने के बाद भी, संयुक्त राष्ट्र में चीन वाली सीट उसे नहीं मिलने के प्रति अपना विरोध जताने के लिए किया था.
सोवियत संघ में उस समय तानाशाह "स्टालिन" का शासन था. चीन में "माओ त्से तुंग" की तानाशाही भी कुछ कम निर्मम नहीं थी. दोनों के बीच मतभेद तब तक आरंभिक अवस्था में थे. 25 जून 1950 को चीन के पड़ोसी और उसी के जैसे कम्युनिस्ट देश उत्तर कोरिया ने, ग़ैर-कम्युनिस्ट दक्षिण कोरिया पर हमला कर कोरिया युद्ध छेड़ दिया.
सोवियत संघ द्वारा सुरक्षा परिषद का बहिष्कार उस समय भी चल रहा था. उसकी अनुपस्थिति में उसके वीटो का डर नहीं रहने से अमेरिका ने उत्तर कोरिया की निंदा का प्रस्ताव बड़े आराम से पास करवा लिया. भारत भी उत्तर कोरिया द्वारा यु्द्ध छेड़ने का समर्थन नहीं कर सकता था, इसलिए उसने अमेरिका के प्रस्ताव को अपना समर्थन दिया.
अमेरिका को भारत की यह बात बहुत पसंद आई. उसे लगा कि - तटस्थता की पैरवी करने वाले भारत के प्रधानमंत्री नेहरू कम्युनिस्टों के होश ठिकाने लगाने के प्रश्न पर उसके निकट आ रहे हैं. कोरिया युदध छिड़ने से कुछ ही दिन पहले नेहरू दक्षिण-पूर्व एशिया के कुछ देशों में गये थे. वहां उनकी कही बातें भी अमेरिका को अच्छी लगी थीं.
जनसंख्या की दृष्टि से भारत उस समय संसार का दूसरा सबसे बड़ा देश था जहाँ बहुदलीय लोकतंत्र था. उधर चीन के नाम वाली सीट पर बिठाया गया ताइवान एक छोटा-सा द्वीप देश था. इन्हीं सब बातों को देखने के बाद अमेरिका, सुरक्षा परिषद में ताइवान वाली सीट भारत को दिलवाने का इक्कूक था.
लेकिन अमेरिका कोई भी औपचारिक प्रस्ताव रखने से पहले आश्वस्त होना चाहता था कि- भारत भी यही चाहता है या नहीं. साथ ही अमेरिका को यह सावधानी भी बरतनी थी कि पापिस्तान को कहीं यह न लगने लगे कि उसके सिर पर से अमेरिका का वरदहस्त उठने जा रहा है और उसके क़ब्ज़े वाला कश्मीर भी शायद उसके हाथ से निकल जायेगा.
परन्तु नेहरू का अनौपचारिक उत्तर था - ‘भारत हर प्रकार से सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के सुयोग्य है. किंतु हम इसे चीन की क़ीमत पर नहीं चाहते.’ तब अमेरिका ने भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में स्थाई सीट दिलाने का प्रस्ताव लाने का बिचार त्याग दिया और साम्यवाद की रोकथाम के लिए दूसरे उपाय करने लगा.
इसके बाद भारत से निराश होकर अमेरिका भारत के बजाय पापिस्तान को ज्यादा महत्व देने लगा. अमेरिका ने साम्यवादी "चीन' और "सोवियत संघ" की रोकथाम के लिए बने अमेरिकी सैन्य संगठनों ‘सीएटो’ (साउथ एशिया ट्रीटी ऑर्गनाइज़ेशन) और ‘सेन्टो’ (सेन्ट्रल ट्रीटी ऑर्गनाइज़ेशन) में 1954-55 में अमेरिका ने पापिस्तान को जगह दी.
नेहरू ने काफ़ी समय तक चीन के प्रति अपनी निजी भावनाओं को देशहित से ऊपर रखा. उनका कहना था कि चीन एक ‘महान देश’ है, इसलिए उसे उसका उचित स्थान मिलना चाहिये. जिन दिनों नेहरू चीन के प्रति सद्भावना दिखाते हुए भारत का हक़ भी छोड़ रहे थे लगभग उन्हीं दिनों में चीन तिब्बत पर आक्रमण की भूमिका रच रहा था.
सितंबर 1950 में दलाई लामा का एक प्रतिनिधिमंडल दिल्ली में था. 16 सितंबर के दिन वह दिल्ली में चीनी राजदूत से मिला था. राजदूत ने कहा कि- तिब्बत को चीन की प्रभुसत्ता स्वीकार करनी ही पड़ेगी. कुछ ही दिन बाद, सात अक्टूबर को चीनी सेना ने तिब्बत पर धावा बोल दिया. तिब्बत के साथ हुई ज़ोर-ज़बरदस्ती को जानते हुए भी नेहरू मौन रहे थे.
उस समय होना तो यह चाहिये था कि- भारत के प्रति अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस की, सद्भावना की आहट पाते ही नेहरू एक अभियान छेड़ देते और कहते कि- उपनिवेशवाद पीड़ितों, नवस्वाधीन देशों, अविकसित ग़रीब देशों तथा गुटनिरपेक्ष देशों का सुरक्षा परिषद में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है; भारत उनकी आवाज़ बनेगा.
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ...
वे कहते कि ब्रिटेन और फ्रांस के रूप में अमेरिका के दो यूरोपीय साथी पहले ही सुरक्षा परिषद में विराजमान हैं, सोवियत संघ कम्युनिस्ट देशों के हितरक्षक की भूमिका निभा रहा है, इसलिए एक और कम्युनिस्ट देश बदले, विश्व का सबसे बड़े लोकतंत्र बन रहे भारत को, सुरक्षा परिषद की सदस्यता पाने का कहीं अधिक औचित्य बनता है.
लेकिन नेहरूजी की यही रट बनी रही कि- पहले चीन, तब भारत. यही रट उन्होंने 1955 में तब भी लगाई, जब तत्कालीन सोवियत प्रधानमंत्री निकोलाई बुल्गानिन ने, अमेरिका की तरह, उनका मन टटोलने के लिए सुझाव दिया कि- भारत यदि चाहे तो उसे जगह देने लिए सुरक्षा परिषद में सीटों की संख्या पांच से बढ़ा कर छह भी की जा सकती है.
नेहरू ने बुल्गानिन को भी यही जवाब दिया कि- कम्युनिस्ट चीन को उसकी सीट जब तक नहीं मिल जाती, तब तक भारत भी सुरक्षा परिषद में अपने लिए कोई स्थायी सीट नहीं चाहता. बुल्गानिन और सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वोच्च नेता निकिता ख्रुश्चेव, नवंबर 1955 में पहली बार, एक लंबी यात्रा पर एकसाथ भारत आये थे.
दिल्ली के बाद वे पंजाब, कश्मीर, तत्कालीन बंबई, कलकत्ता, मद्रास, बंगलौर और दक्षिण भारत के प्रसिद्ध हिल स्टेशन ऊटी भी गये.बुल्गानिन ने एक सम्मेलन में कहा, ‘हम सामान्य अंतरराष्ट्रीय स्थिति और तनावों में कमी लाने के बार में बातें कर रहे हैं और यह सुझाव देना चाहते हैं कि भारत को छठे सदस्य के रूप में सुरक्षा परिषद में शामिल किया जा सकता है.’
इस पर नेहरू की प्रतिक्रिया थी, ‘बुल्गानिन शायद जानते हैं कि अमेरिका में कुछ लोग सुझाव दे रहे हैं कि सुरक्षा परिषद में चीन की सीट भारत को दी जानी चाहिये. यह तो हमारे और चीन के बीच खटपट करवाने वाली बात होगी. हम इसके सरासर ख़िलाफ़ हैं. हम कोई आसन पाने के लिए अपने आप को इस तरह आगे बढ़ाने के विरुद्ध हैं, जो परेशानी पैदा करने वाला है और भारत को विवाद का विषय बना देगा.’
नेहरू ने जोर देकर कहा, ‘भारत को यदि सुरक्षा परिषद का सदस्य बनाया जाता है तो पहले संयुक्त राष्ट्र चार्टर में संशोधन करना होगा. हमारा समझना है कि ऐसा तब तक नहीं किया जाना चाहिये, जब तक पहले चीन की और संभवतः कुछ दूसरों की सदस्यता का प्रश्न हल नहीं हो जाता. मैं समझता हूं कि हमें पहले चीन की सदस्यता पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिये.
स्वयं एक कम्युनिस्ट नेता बुल्गानिन ने जब देखा कि नेहरू अब भी चीन समर्थक राग ही अलाप रहे हैं, तो वे इसके सिवाय और क्या कहते कि ‘हमने सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता का प्रश्न इसलिए उठाया, ताकि हम आपके विचार जान सकें. हम भी सहमत है कि यह सही समय नहीं है, सही समय की हमें प्रतीक्षा करनी होगी.’
बुल्गानिन को दिये गये नेहरू के उत्तर से इस बात की फिर पुष्टि होती है कि- अमेरिका ने कुछ समय पहले सचमुच यह सुझाव दिया था कि सुरक्षा परिषद में चीन वाली सीट, जिस पर उस समय ताइवान बैठा हुआ था, भारत को दी जानी चाहिये. पुष्टि इस बात की भी होती है कि पहले अमेरिकी सुझाव और बाद में सोवियत सुझाव को ठुकराया.
नेहरू के जीवनकाल में ही घटी अंतरराष्ट्रीय घटनाओं ने चीन के प्रति उनके मोह को गलत साबित किया. चीन ने नेहरू के सामने ही तिब्बत को हथिया लिया और वहां भीषण दमनचक्र चलाया. नेहरू तो चीन की महानता का गुणगान करते रहे जबकि चीन ने 1962 में भारत पर हमला कर भारत की हजारो हेक्टेयर भूमि पर कब्ज़ा कर लिया.
लद्दाख का स्विट्ज़रलैंड जितना बड़ा एक हिस्सा तभी से चीन के क़ब्ज़े में है. अरुणाचल प्रदेश को भी वह अपना भूभाग बताता है. क्षेत्रीय दावे ठोक कर सोवियत संघ और वियतनाम जैसे अपने कम्युनिस्ट बिरादरों से युद्ध लड़ने में भी चीन ने कभी संकोच नहीं किया और अब तो वह ताइवान को भी बलपूर्वक निगल जाने की धमकी दे रहा है.
जो लोग यह कहते हैं कि 1955 में सोवियत प्रधानमंत्री निकोलाई बुल्गानिन का यह सुझाव हवाबाज़ी था कि भारत के लिए सुरक्षा परिषद में छठीं सीट भी बनाई जा सकती है, वे भूल जाते हैं या नहीं जानते कि चीन में माओ त्से तुंग की तानशाही शुरू होते ही उस समय के सोवियत तानाशाह स्टालिन के साथ भी चीन के संबंधों में खटास आने लगी थी.
माओ और स्टालिन कभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हुआ करते थे. 5 मार्च 1953 को "स्टालिन" की मृत्यु होते ही "माओ त्से तुंग" अपने आप को कम्युनिस्टों की दुनिया का ‘सबसे वरिष्ठ नेता’ मानने लगा था. दूसरी ओर सोवियत संघ के नये सर्वोच्च नेता निकिता ख़्रुश्चेव, उस स्टालिनवाद का अंत कर रहे थे जो अब चीन में माओ की कार्यशैली बन चुका था.
1955 आने तक माओ और ख्रुश्चेव के बीच दूरी इतनी बढ़ चुकी थी कि- चीन उस समय के पूर्वी और पश्चिमी देशों वाले गुटों के बीच ख्रुश्चेव की ‘शांतिपूर्ण सहअस्तित्व’ वाली नीति को आड़े हाथों लेने लगा था. चीन इसे मार्क्स के सिद्धान्तों को भ्रष्ट करने वाला ‘संशोधनवाद’ बता रहा था. दोनों पक्ष एएक-दूसरे को पथभ्रष्ट तथा साम्राज्यवादी’ कहने लगे थे.
इस कारण सोवियत नेताओं को इस बात में विशेष रुचि नहीं रह गयी थी कि- सुरक्षा परिषद में चीन के नाम वाली स्थायी सीट भविष्य में माओ त्से तुंग के चीन को ही मिलनी चाहिये. वे चीन वाली सीट पर से ताइवान को हटा कर भारत को बिठाने के अमेरिकी प्रयास का या तो विरोध नहीं करते या कुछ समय के लिए विरोध का केवल दिखावा करते.
ताइवान को मिली हुई सीट भारत को देने पर संयुक्त राष्ट्र का चार्टर बदलना भी नहीं पड़ता. संयुक्त राष्ट्र महासभा में दो-तिहाई बहुमत ही इसके लिए काफ़ी होता. चार्टर में संशोधन की आवश्यकता तब आती, जब सीटों की संख्या बढ़ानी होती. बुल्गानिन के कहने के अनुसार, सोवियत संघ 1955 में इसके लिए भी तैयार था.
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की स्थाई सीट पर 1971 चीन नहीं बल्कि ताइवान बैठा रहा. इन बातों से सिद्ध होता है कि अमेरिका 1970 वाले दशक में भी सुरक्षा परिषद को अपनी पसंद के अनुसार उलट-पलट सकता था. अंततः चीन को लाने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा में 25 अक्टूबर 1971 को मतदान हुआ.
संयुक्त राष्ट्र के तत्कालीन 128 सदस्य देशों में से 76 ने चीन के पक्ष में और 35 ने विपक्ष में वोट डाले. 17 ने मतदान नहीं किया. चीन के चुने जाते ही ताइवान से न केवल सुरक्षा परिषद में उसकी सीट छीन ली गयी बल्कि संयुक्त राष्ट्र की उसकी सदस्यता भी छिन गयी. उसकी सीट पर 15 नवंबर 1971 से चीन का प्रतिनिधि बैठने लगा.
अगर नेहरू ने सही निर्णय लिया होता तो भारत का प्रतिनिधि भी वीटो-अधिकार के साथ वहां बैठ रहा होता और सोवियत संघ को भारत की लाज बचाने के लिए दर्जनों बार अपने वीटो-अधिकार का प्रयोग नहीं करना पड़ता. आज स्थिति यह है कि- भारत चाहे जितना मर्जी जोर लगा लेकिन स्थायी सदस्य नहीं बन सकता, जब तक इसके चार्टर में संशोधन न हो.
इसके लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का विस्तार करना होगा और इसके विस्तार में चीन वीटो न लगाए. चीन भला क्यों चाहेगा कि वह एशिया में अपने सबसे बड़े प्रतिस्पर्धी देश भारत के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपनी बराबरी में बैठने का मार्ग प्रशस्त करे ? 1950 के दशक जैसा सुनहरा मौका अब शायद ही दोबारा आए.