Wednesday, 11 December 2019

अहेमदशाह अब्दाली और पानीपत की तीसरी लड़ाई ( भाग -1 )

Related imageऔरंगजेब की मौत के बाद मुघलिया सल्तनत कमजोर होने लगी और भारत की ज्यादातर रियासते आजाद हो गईं थी. सबसे ज्यादा ताकतवर होकर मराठा उभरे थे, पेशवा बाजीराव के नेतृत्व में भारत के बड़े हिस्से पर मराठों का राज हो गया था. शिवाजी महाराज के द्वारा दिखाया गया हिन्दूराष्ट्र का सपना सच होता दिखने लगा था.
पेशवा बाजीराव प्रथम ने मराठा साम्राज्य को उत्तर पश्चिम तक पहुंचा दिया था. 1740 में बाजीराव प्रथम की म्रत्यु के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र बालाजी बाजीराव उर्फ नाना साहेब (प्रथम) पेशवा नियुक्त हुऐ. नाना साहेब की बुद्धिमत्ता और उनके चचेरे भाई सदाशिवराव भाऊ की बहादुरी ने हिन्दुस्थान की किस्मत बदलना शुरू कर दिया था.
इन दोनों ने मिलकर वर्तमान महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात और मध्यप्रदेश के बड़े हिस्से पर भगवा फहरा दिया था. उसके बाद उन्होंने बंगाल पर कई हमले किये और मुघल साम्राज्य की नींव को ही हिलाकर रख दिया. अब नाना साहब ने अपना मुख्य उद्देश्य, दिल्ली से मुघलों को उखाड़कर, दिल्ली में हिन्दू राज्य स्थापित करना बना लिया था.
उन्होंने पेशावर में सुरक्षा चौकी बनाकर दत्ता जी सिंधिया को उसका संरक्षक नियुक्त कर दिया. इस तरह आक्रमणकारियों के भारत में आने का रास्ता ही बंद कर दिया था. इसी बीच 1747 में नादिर शाह की मौत के बाद अहेमद शाह अब्दाली अफगानिस्तान का शासक बना. वह अत्यंत जालिम और खूंखार इंसान इंसान था.
उसने भारत पर कई बार चढ़ाई की लेकिन उसे ख़ास ज्यादा सफलता नहीं मिली. 1756 में भारत के कुछ मुस्लिम नबाबो ने अहेमद शाह अब्दाली को भारत में आक्रमण करने के लिए आमंतरित किया तथा उसे विश्वास दिलाया कि सभी मुसलमान इसमें उसका साथ देंगे, जिससे अब्दाली की सहायता से हिन्दू राजाओं को आगे बढ़ने से रोका जाए.
नवम्बर, 1756 ई. में वह बड़े लश्कर के साथ हिन्दुस्तान आया. उसने सबसे पहले पेशावर में दत्ता जी सिंधिया को परास्त किया और दिल्ली की ओर बढ़ चला. 23 जनवरी, 1757 को वह दिल्ली पहुँचा. वह लगभग एक माह तक दिल्ली में रहा और उसने नादिरशाह द्वारा दिल्ली में किये गये किये गये कत्लेआम और लूटमार को एक बार फिर से दुहराया.
दिल्ली को लूटने और कत्लेआम करने के बाद वह धर्म नगरी मथुरा वृन्दावन का विध्वंस करने निकल पड़ा. अब्दाली ने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि- "मथुरा हिन्दुओं का पवित्र स्थान है. उसे पूरी तरह नेस्तनाबूद कर दो. जहाँ-कहीं पहुँचो, क़त्ले आम करो और लूटो. लूट में जिसको जो मिलेगा, वह उसी का होगा.
इसके अलावा काफिरों का सिर काट कर लाने पर सिपाही को प्रत्येक सिर के लिए पाँच रुपया इनाम सरकारी खजाने से भी दिया जायगा. अब्दाली के आदेश पर उसकी सेना मथुरा की तरफ चल दी. अब्दाली की सेना की पहली कड़ी मुठभेड़ जाटों के साथ बल्लभगढ़ में हुई. अब्दाली को इस अभियान में सबसे बड़ा प्रतिरोध यहीं झेलना पड़ा.
Image result for जवाहर सिंह सूरजमलजाट सरदार बालूसिंह और भरतपुर के महाराजा सूरजमल के ज्येष्ठ पुत्र जवाहर सिंह ने अब्दाली की विशाल सेना को रोकने की कोशिश की. उन्होंने बड़ी वीरता से युद्ध किया पर उन्हें शत्रु सेना से पराजित होना पड़ा. मथुरा से लगभग 8 मील पहले चौमुहाँ पर भी जाटों की छोटी सी सेना के साथ अब्दाली की लड़ाई हुई.
जाटों ने बहुत बहादुरी से युद्ध किया लेकिन दुश्मनों की संख्या अधिक होने के कारण उनकी हार हुई. मथुरा और वृन्दावन में अब्दाली की सेना ने भीषण नरसंहार किया. तीन दिन मथुरा में मार-काट और लूट-पाट करते रहे. मंदिरों को नष्ट किया और स्त्रियों की इज्जत लूटी. हजारों स्त्रियों ने इज्जत बचने के लिए कुओं और यमुना में कूदकर जान दे दी.
उसने यमुना नदी पार कर महावन को लूटा और फिर वह गोकुल की ओर गया परन्तु वहाँ पर सशस्त्र नागा साधुओं के एक बड़े दल ने यवन सेना का जम कर सामना किया. नागों के प्रतिरोध और सैनिको को हैजा हो जाने के कारण वह गोकुल को नहीं लूट सका. मथुरा के बाद उसने आगरा का भी यही हाल किया और दिल्ली वापस लौट आया.
उसने आलमगीर द्वितीय को दिल्ली का सम्राट, इमादुलमुल्क को 'वज़ीर', रुहेला सरदार नजीबुद्दौला को सम्राज्य का 'मीर बख़्शी' और अपना मुख्य एजेन्ट नियुक्त किया. इसके आलावा कश्मीर, लाहौर, सरहिन्द तथा मुल्तान को अपने अधिकार में ले लिया. अपने बेटे 'तिमिरशाह' को वहां का शासक नियुक्त कर स्वयं वापस अफगानिस्तान चला गया.
जब मराठों को इस कत्लेआम की खबर मिली तो मराठों ने अपनी ताकत को इकठ्ठा कर पेशवा रघुनाथराव के नेतृत्व में, मार्च 1758 में दिल्ली पर हमला किया. मराठों ने नजीबुद्दौला को दिल्ली से निकाल दिया तथा 'अदीना बेग' को पंजाब का गर्वनर नियुक्त कर दिया. नजीबुद्दौला के द्वारा बुलाये जाने पर 1760 में अब्दाली फिर भारत आया.
क्रमशः

Saturday, 7 December 2019

यदि सावरकर न होते तो 1857 की क्रान्ति इतिहास न बनती : अमित शाह

इतिहास लेखन के लिए उस काल में जन्म लेना जरूरी नहीं है जिस काल की घटना है. 1857 की क्रान्ति में लाखों भारतीयों ने भाग लिया और देश की खातिर अपना बलिदान दिया। जैसा की सभी जानते हैं आधिकारिक इतिहास शासकों की मर्जी के मुताबिक़ लिखा जाता है. 1857 के स्वाधीनता सेनानियों के साथ भी यही अन्याय हुआ.
अंगरेज इतिहासकारो और अंग्रेजों के चापलूस भारतीयों ने उस घटना को न तो स्वाधीनता संग्राम लिखा और न ही उन सेनानियों को स्वाधीनता सेनानी. उस घटना को राजद्रोह और ग़दर लिखा गया तथा स्वाधीनता सेनानियों को राजद्रोही.  देश की जनता को भी स्कूलों में यही पढ़ाया जाता था तथा स्वाधीनता सेनानियों को गंदी नजर से देखा जाता था.
उस अंग्रेजी इतिहास के अनुसार मेरठ के क्रांतिकारी सैनिक "गद्दार" थे, बहादुर शाह जफ़र अंग्रेजों के टुकड़ों पर पलने वाला कमजोर बूढ़ा शायर था, बेगम हजरत महल एक तवायफ थी, तात्या टोपे लुटेरे थे, नाना साहब, कुंवर सिंह, झांसी की रानी की रानी सत्ता के लालची थे, लखनऊ का नबाब एक विलासी और ऐय्यास नबाब था.
स्वाधीनता सेनानियों को शासकीय इतिहास में अंग्रेजों ने भले ही गद्दार साबित कर दिया था लेकिन लोक कथाओं और लोक गीतों के माध्यम से उनकी गाथाये लोग एक दूसरे को सुनाते रहे. स्वातंत्र्य वीर सावरकर ने उन्ही लोक गाथाओ और शासकीय इतिहास का तुलनात्मक अध्यन करके 2007 में नए सिरे से अपना ग्रन्थ लिंखा "1857 -प्रथम स्वातंत्र्य समर".
इस ग्रन्थ को लिखने के लिए लोकगाथाओं का अध्यन किया और उनका सरकारी इतिहास से मिलान किया. उदाहरण के लिए - झांसी की रानी की कहानी शासकीय इतिहास में थी ही नहीं, उनके बारे में जानने के लिए ग्वालियर, दतिया, ओरछा का इतिहास खंगाला और उसका बुंदेलों / हरबोलों द्वारा गाये जाने वाले गीतों से मिलान किया.
इसी प्रकार लखनऊ, कानपुर, जगदीशपुर, मेरठ, दिल्ली, आदि में जुबानी बोली जाने वाली कहानियों का अध्यन किया और उसका भी सरकार इतिहास से मिलान किया. इस प्रकार उन्होंने जो निष्कर्ष निकाले उनके आधार पर उन्होंने अपना ग्रन्थ लिखा. इस ग्रन्थ को अंग्रेजों ने झूठ का पुलिंदा कहा और इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया.
लेकिन बहुत सारे क्रांतिकारियों ( लाला हरदयाल, मैडम कामा, श्याम कृष्णवर्मा, सरदार अजीत सिंह, राजा महेंद्र प्रताप, करतार सिंह शराभा, सुखदेव, हेमू कालानी, आदि ने ) समय समय पर इस ग्रन्थ को चोरी छुपे छपवाया और वितरित किया। यह भी कहा जा सकता है कि इस ग्रन्थ ने देश को दूसरे स्वाधीनता संग्राम के लिए तैयार किया.
अंग्रेज सावरकर से नाराज थे और कड़ी सजा देना चाहते थे, लेकिन किताब लिखना इतना बड़ा गुनाह नहीं था कि उन्हें फांसी या कालापानी की सजा दी जा सके. इसी बीच अभिनव भारत के क्रांतिकारियों ने नाशिक के कलक्टर "जैक्शन" की हत्या कर दी. अंग्रेजों ने इस काण्ड का मुख्य साजिश करता "सावरकर" को बनाकर कालापानी की सजा देदी
लेकिन दस साल कालापानी में कैद रखने के बाद भी इस अपराध को अंग्रेज कभी साबित नहीं कर पाए और अंततः रिहा करना पड़ा. लेकिन रिहाई के बाद भी तीन साल तक उन्हें एहतियात के तौर पर 3 साल रत्नागिरी जेल में रखा गया कि - सावरकर को रिहा करने से देश में दंगा हो सकता है और देश में अराजकता फ़ैल सकती है.

अंग्रेजों और उनके चापलूसों ने भले ही सावरकर के ग्रन्थ को झूठ का पुलिंदा कहा हो लेकिन भारतीयों ने इस ग्रन्थ को प्रामाणिक इतिहास माना. इस ग्रन्थ के आने के बाद अनेकों छोटे बड़े लेखकों, कवियों और इतिहासकारों ने इसे सन्दर्भ ग्रन्थ मानकर अपना लेखन किया. इस प्रकार अमित शाह का यह कहना (यदि स्वतंत्र्यवीर सावरकर न होते तो 1857 की क्रान्ति इतिहास न बनती) सौ फीसदी सही है.

Wednesday, 4 December 2019

फूलन के साथ जातीय अत्याचार हुआ था या फूलन ने जातीय अत्याचार किया था ?

Image may contain: 2 people, hat and closeupजब भी कहीं कोई बलात्कार की खबर आती है कुछ तथाकथित समझदार लोग डाकू फूलन का महिमा मण्डन करते हुए लिखने लगते हैं कि- फूलन ने बलात्कारी को मारकर न्याय किया। दुसरी तरफ ये बुद्धिजीवी खुद को गांधीवादी भी बताते है.
डाकू फूलन के अपराध पर पर्दा डालने के लिए झूठी कहानी गढ़ी गई है कि- उसने अपने साथ बलात्कार करने वालों को मारा था जबकि हकीकत यह है कि उसने बलात्कारी को नहीं बल्कि बलात्कारी की जाति वाले 20 निर्दोष लोगों की हत्या की थी.
खुद को कांग्रेस समर्थक बताने वाले ये लोग यह भी भूल जाते हैं कि- फूलन के आतंक के दौर में UP, MP और केंद्र, तीनो जगह कांग्रेस की सरकार थी और कांग्रेस सरकार ने ही फूलन के ऊपर 22 हत्या, 30 डकैती और 18 अपहरण के केस दर्ज किये थे.
आइये अब जरा यह भी जान लेते हैं कि- फूलन के साथ अत्याचार किस किस ने किया. सबसे पहले उसके सगे चाचा ने उसके पिता की जमीन हडप ली और उसने अपने चचेरे भाई का सर फोड़ दिया. जाहिर सी बात है कि- वो उसके अपने परिवार के लोग थे.
उसके पिता ने 10 साल की फूलन की शादी अपनी ही जाति के 40 साल के अधेड़ से कर दी. पति ने उसके साथ बलात्कार किया. कुछ समय बाद उसके पति ने उसे घर से निकाल दिया और दूसरी शादी कर ली अर्थात यहाँ भी अत्याचारी उसके अपने.लोग.
कुछ दिन मायके में रहने के बाद, उसके भाई ने भी उसे घर से निकाल दिया. यहाँ भी उस पर अत्याचार करने वाला उसका सगा भाई. फूलन ने घर छोड़ दिया और ऐसे लोगों के साथ उठने बैठने लगी, जिनके सम्बन्ध डाकूओं के गिरोह से थे.
Image result for फूलन देवीवह डाकुओं के गिरोह के साथ रहने लगी. हालांकि आजतक यह स्पस्ट नहीं हुआ कि- डाकू उसे जबरन उठा ले गए थे या वह अपनी मर्जी से उनके साथ गई थी. डाकुओं का सरदार "बाबू गुज्जर" उस पर आशक्त हो गया जबकि वह "विक्रम मल्लाह" को चाहती थी.
इस बात को लेकर विक्रम मल्लाह ने "बाबू गुज्जर" की हत्या कर दी और खुद सरदार बन बैठा. अब "फूलन", "विक्रम मल्लाह" के साथ रहने लगी. एक दिन फूलन अपने गैंग के साथ अपने पति के गांव गई. वहां उसे और उसकी बीवी दोनों को बहुत पीटा.
"बाबू गुज्जर" की हत्या से नाराज उसके डाकू दोस्त "श्रीराम ठाकुर" और "लाला ठाकुर" के गिरोह ने विक्रम मल्लाह और फूलन के गिरोह पर हमला कर दिया. दोनों गुटों में लड़ाई हुई. विक्रम मल्लाह को मार दिया गया. और वो फूलन को उठा ले गए.
श्रीराम ठाकुर और लाला ठाकुर के गैंग ने फूलन का सामूहिक बलात्कार किया. यह भी कोई जातीय हिंसा की घटना नहीं थी बल्कि "श्रीराम ठाकुर" और "लाला ठाकुर" के गिरोह ने अपने साथी "बाबू गुज्जर" की हत्या का बदला लिया था.
Image result for फूलन देवीअर्थात वह घटना जातीय हिंसा की नहीं बल्कि गैंगबार की थी. इसके बाद फूलन फिर से वापस बीहड़ में आ गई और विक्रम मल्लाह के गिरोह की सरदार बन गई. अब उसका गिरोह फूलन के नेत्रत्व में इलाके में लूटमार / हत्याए करने लगा.
1981 में फूलन बेहमई गांव पहुंची. उसे पता चला था कि- उसके साथ सामूहिक गैंग करने वालों में से 2 बलात्कारी उसी गाँव के थे. उसके गिरोह ने बेहमई गाँव पर हमला कर गाँव के ठाकुर जाति के 20 पुरुषों को लाइन में खडा करके गोलियों से भुन दिया.
अपने अपराध को छुपाने और जनता की सहानुभूति हाशिल करने के लिए फूलन ने यह प्रचारित किया कि- उसके साथ ठाकुरों ने बलात्कार किया था इसलिए उसने ठाकुरों को मारा. जबकि फूलन के साथ कोई जातीय अत्याचार नहीं हुआ था.
फूलन के साथ बचपन में जो कुछ भी गलत हुआ, उसके लिए जाति व्यवस्था नहीं बल्कि उसके चाचा, पिता, पति और भाई जिम्मेदार थे. जब डाकूओं के गिरोह में थी तो उसके दो प्रेमी आपस में लड़ें थे. जिनमे से एक प्रेमी डाकू ने दुसरे प्रेमी डाकू की हत्या कर दी.
जो प्रेमी मारा गया था उसके दोस्तों ने, अपने दोस्त का बदला लेने के लिए उसके दूसरे प्रेमी को मारा और उसके साथ गैंगरेप किया. वो बलात्कारी जाति के ठाकुर थे इसलिए फूलन ने ठाकुर जाति के 20 निर्दोष निर्दोष ठाकुरों की गोली मार कर हत्या कर दी.
फूलन की इस पूरी कहानी में फूलन जातीय हिन्सा की शिकार आखिर कब हुई ? जातीय हिंसा फूलन के साथ नहीं हुई बल्कि - जातीय हिंसा तो फूलन ने ठाकुरों के खिलाफ की थी. ऐसे में डाकू फूलन को महिमामंडित करना आखिर कहाँ से उचित है ?
फूलन ने खुद माना था कि -  20 निर्दोष थे बाद में अपने वकीलों की सलाह पर वह इस हत्याकांड से ही मुकर गई थी. 25 जुलाई 2001 को शेर सिंह राणा फूलन को गोली मार दी और कहा कि मैंने बेहमई हत्याकांड का बदला लिया है.

अक्सर कहा जाता है कि- फूलन ने अपने बलात्कारियों को सजा दी जबकि वास्तविकता यह है कि - फूलन ने अपने बलात्कारी श्रीराम ठाकुर और लाला ठाकुर को नहीं मारा था बल्कि 20 निर्दोष लोगों को मारा था. उनका दोष सिर्फ इतना था कि- वो ठाकुर जाति के थे और फूलन के बलात्कारी श्रीराम ठाकुर और लाला ठाकुर भी ठाकुर थे.


और हाँ फूलन ने जिन 20 लोगो की हत्या की थी उनमे दो दलित और एक मुस्लमान भी था.








मोतीराम मेहरा एवं उनके परिवार की क़ुरबानी

Image may contain: one or more peopleदस लाख मुग़ल सैनकों के साथ आनंदपुर साहब की 6 महीने से ज्यादा की घेराबंदी, हजारों मुघल सैनकों की मौत और अपार धनहानि के बाबजूद सरहंद का नबाब "बजीर खान" न तो गुरू गोविन्द सिंह को पकड़ सका और न ही मार सका था. इस हार ने उसे गुस्से से इतना पागल कर दिया था कि वो इंसानियत ही भूल गया.
गंगू की मुखबिरी से जब वो माता गूजरी और छोटे साहबजादों को गिरफ्तार करने में कामयाब हो गया तो उसने युद्ध में हार की हताशा का सारा गुस्सा उनपर और उनकी मदद करने वालों पर निकाला. पहले उसने उन बच्चो को मुसलमान बनाकर, गुरु तेगबहादुर और गुरु गोविन्द सिंह के अनुयायियों को नीचा दिखाने का प्रयास किया.
उसने उन बच्चों को धर्म बदलने पर वैभवपूर्ण जीवन और बड़े होने शहजादियों से विवाह का लालच दिया. जब वो नहीं माने तो उनको कडकडाती ठण्ड में माता गुजरी के साथ ठन्डे बुर्ज में कैद कर दिया और उनको कुछ भी खाने पीने को देने से मना कर दिया. जेल में कैदियों को भोजन देने वाले मोतीराम मेहरा से यह देखा न गया.
वो अपने घर से जेबर और पैसे लेकर आया और सिपाहियों को रिश्वत देकर, माता गुजरी और साहबजादों को चुपचाप गर्म दूध पिलाने जाने लगा. उसने तीन दिन तक ऐसा किया लेकिन तीसरे दिन बजीर खान को इसकी खबर लग गई. यह जानकार वह गुस्से से आग बबूला हो गया और उसने मोतीराम मेहरा के पूरे परिवार को गिरफ्तार कर लिया.
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बजीर खान ने मोतीराम मेहरा, उसकी बूढी माँ, उसकी पत्नी तथा उसके बच्चे को कोल्हू में पेरकर मारने का हुक्म दिया. मोतीराम मेहरा की आखों के सामने पहले उसके बच्चे को , फिर उनकी माँ को , फिर उसकी पत्नी को कोल्हू में परा गया और उसके बाद मोती राम मेहरा को भी कोल्हू में पेर कर शहीद कर दिया गया.
इस घटना को याद करके रोगटे खड़े हो जाते हैं. जब जब गुरु गोविन्द सिंह के पिता और उनके बच्चो की शहादत को याद किया जाएगा , तब तब मोतीराम मेहरा और उनके परिवार की कुर्बानी को भी याद किया जाएगा .