Sunday, 13 August 2017

शास्त्री जी के इस्तीफे का सच

जब भी कहीं कोई दुर्घटना होती है तो लोग "लाल बहादुर शास्त्री" जी का उदाहरण देकर, उस विभाग के मंत्री का इस्तीफा मंगना शुरू कर देते हैं. क्या लाल बहादुर शास्त्री जी ने जिम्मेदार लोगों पर कार्यवाही करने और पीड़ितों को न्याय दिलाने की अपनी जिम्मेदारी निभाने के बजाय, जिम्मेदारी से भागकर कोई महान काम क्या था ?
कितने लोग ऐसे हैं जिनको उस दुर्घटना के बारे में पता है ? क्या आप बता सकते हैं कि यह दुर्घटना कब और कहाँ हुई थी ? इस दुर्घटना में कितने लोग मारे गए थे और सरकारी आंकड़ों में यह संख्या कितनी है ? वास्तव में दुर्घटना के जिम्मेदार कितने लोगों को सजा मिली थी ? शास्त्री जी के इस्तीफे से पीड़ितों को क्या मिल गया था ?
एक बात मैं यह कहना चाहता हूँ कि - यहाँ मैं शास्त्री जी की क्षमता पर सवाल नहीं उठा रहा बल्कि नैतिकता के आधार पर इस्तीफे की बात कर रहा हूँ.क्या शास्त्री जी ने इस हादसे से दुखी होकर संन्यास ले लिया था और सत्ता छोड़ दी थी ? कहीं ऐसा तो नही कि शास्त्री जी के इस्तीफे की आड़ में सारे मामले को ही दबा दिया गया था ?
वो चर्चित रेल दुर्घटना 27 नवंबर 1956 को तमिलनाडु के अरियालुर में हुई थी. स्थानीय अखबारों और प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार उस हादसे में 500 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी, हालांकि सरकारी आंकड़ों में यह संख्या 142 बताई जाती है. इस बात की कहीं कोई जानकारी नहीं मिलती है कि किसी अधिकारी को इसमें सजा मिली हो.
पीड़ितों का कहाँ इलाज हुआ और उनको कितना मुआवजा मिला, इस मामले में कहीं भी कोई जानकारी नहीं मिलती है, जबकि शास्त्री जी के इस्तीफे की चर्चा सर्वत्र मिलती है. शास्त्री जी ने भी मात्र रेलमंत्री पद से इस्तीफा दिया था कोई राजनीति से संन्यास नहीं लिया था. रेलमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद भी बिना बिभाग के मंत्री के रूप में कबिनेट में बने रहे.
उस समय दूसरा आम चुनाव नजदीक था. विपक्ष ने "जीप घोटाला", "POK पर पापिस्तान का कब्जा", "तिब्बत पर चीन का कब्ज़ा", " संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की स्थाई सीट दावा न करने", पापिस्तान से भारत आये विस्थापितों का सही पुनर्वास न होने, आदि जैसे मुद्दों पर नेहरू सरकार को घेर रखा था. उसी समय यह दुर्घटना घट गई.
दुर्घटना की नैतिक जिम्मरदारी लेते हुए शास्त्री जी ने रेलमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया. आपदा को अवसर में बदलते हुए कांग्रेस ने बड़ी चालाकी से दुर्घटना के बजाय शास्त्री जी के इस्तीफे को महानता में बदल कर, उसे चुनावी मुद्दा बना दिया. लोग दुर्घटना पर सवाल उठाने के बजाय इस्तीफे की बात करने लगे और कांग्रेस पार्टी को 1957 के लोकसभा चुनाव में भारी विजय मिली.
नैतिकता के आधार पर रेलमंत्री पद से इस्तीफा देने वाले शास्त्री जी कुछ ही माह बाद परिवहन मंत्री बन गए. उसके साथ वे संचार मंत्री भी बने तथा बाद में वाणिज्य और उद्द्योग मंत्री बने. 1961 में गोविन्द वल्लभ पंत के देहांत के पश्चात वह गृह मंत्री बने तथा 1964 में प्रधानमंत्री नेहरूजी की म्रत्यु के बाद शास्त्री जी प्रधान मंत्री बन गए.

Wednesday, 9 August 2017

अंग्रेजों भारत छोडो आन्दोलन

सन 1942 में  9-अगस्त के ही दिन महात्मा गांधी ने "अंग्रेजो भारत छोडो आन्दोलन" का ऐलान किया था. आन्दोलन के पहले दिन से ही गांधी जी एवं उनके कई निकटवर्ती सहयोगी जेल के नाम पर सरकारी सुरक्षा में, विबिन्न पैलेसों और डाक बंगलों में चले गए थे, और वे लोग आन्दोलन की समाप्ति के बाद ही बाहर आये थे.
यह आन्दोलन शुरू होते ही कांग्रेस के हाथ से निकल कर, देश की जनता का क्रांतिकारी आन्दोलन बन गया था, जिन पर गांधी या कांग्रेस का कोई नियंत्रण नहीं था, गांधीजी के द्वारा अहिंसक आन्दोलन का आव्हान किया गया था, लेकिन देश के जोशीले युवाओं ने खुलकर अंग्रेजों के खिलाफ हिंसक प्रदर्शन किये.
क्रांतिकारियों ने देशभर में हजारों पुलिस स्टेशन, रेलवे स्टेशन, डाक घर, सरकारी कार्यालयों एवं अंग्रेजों इत्यादि पर खुलकर हमले किये और उनको बहुत नुकशान पहुंचाया. सरकारी आँकड़ों के अनुसार इस जनआन्दोलन में 940 लोग मारे गये, 1630 लोग घायल हुए,18,000 डी० आई० आर० में नजरबन्द हुए तथा 60,229 गिरफ्तार हुए थे.
दरअसल उन दिनों दूसरा विश्वयुद्ध (1939 से 1944 तक) चल रहा था जिसमे भारत के क्रांतिकारी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फ़ौज में शामिल होकर अंग्रेजों पर हमले कर रहे थे. जो भारतीय आजाद हिन्द फ़ौज में शामिल में शामिल नहीं थे वे भी उसका समर्थन कर रहे थे और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को अपना आदर्श मानतेे थे.
1939 से 1944 तक चले दूसरे विश्वयुद्ध में अंग्रेजो को बहुत क्षति उठानी पडी थी, दूसरी तरफ सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फ़ौज ने भी अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था. आजाद हिन्द फ़ौज ने जर्मनी और जापान के सहयोग से अंग्रेजों पर हमले तेज कर दिए थे और अंडमान -निकोवार को आजाद भी करा लिया था.
उस समय "सुभाष चन्द्र बोस" भारत के युवाओं के महानायक बने हुए थे. देश की जनता मानने लगी थी कि - गांधीजी की अहिंसा से कुछ नहीं होगा. "बोस" के रास्ते पर चलकर ही आजादी मिल सकती है. सुभाष चन्द्र बोस के नारे "तुम मुझे खून दो, मै तुम्हे आजादी दूँगा" तथा "दिल्ली चलो" ने देश की जनता में जोश भर दिया था.
ऐसे में मौके की नजाकत को भाँपते हुए 8 अगस्त 1942 की रात में गांधी जी ने, बम्बई से "अँग्रेजों भारत छोड़ो" का नारा दिया और गिरफ्तारी के नाम पर सरकारी सुरक्षा में "आगा खान पैलेस" में चले गये. 9 अगस्त का दिन चुनने की एक ख़ास बजह थी. 1925 में 9 अगस्त को काकोरी ट्रेन काण्ड हुआ था.
भारत छोडो आन्दोलन का श्रेय भले ही गांधी जी को दिया जाता है लेकिन इसमें भाग लेने वाले अधिकांश क्रांतिकारियों ने सुभाष चन्द्र बोस की उग्र बिचारधारा से साथ जबरदस्त क्रान्ति की थी. उन लोगों का सिद्धांत अंहिसा के साथ सविनय निवेदन करना नहीं बल्कि अंग्रेजों से युद्ध कर उनको मार भगाना था.
गांधी जी जेल (आगा खान पैलेस) से अक्सर अहिसा का आव्हान करते थे मगर युवा उसे अनसुना कर देते थे. भारत छोड़ो आंदोलन सही मायने में एक जन आंदोलन था. इसको गांधीजी और कांग्रेस ने शुरू अवश्य किया था. लेकिन इसमें भाग लेने वाले आन्दोलनकारी सुभाष चन्द्र बोस के आदर्श पर चलते थे.
आजाद हिन्द फ़ौज बाहर से सैन्य हमने कर रही थी और देश के अन्दर क्रांतिकारी अंग्रेजों को भारी नुकशान पहुंचा रहे थे. किन्तु दुर्भाग्यवश युद्ध का पासा पलट गया. जर्मनी ने हार मान ली और जापान को भी घुटने टेकने पड़े. सुभाषचन्द्र बोस की मौत की खबर (?) के साथ ही आजाद हिन्द फ़ौज का अभियान और भारत छोडो आन्दोलन समाप्त हो गया.
दुसरे विश्वयुद्ध, आजाद हिन्द फ़ौज और भारत छोडो आन्दोलन ने अंग्रेजों को इतना कमजोर कर दिया था कि उनको यहाँ से भागना पडा. भारत और हां, इस आन्दोलन के दौरान मुस्लिम लीग और अधिकाँश मुश्लिम नेता, क्रान्ति / आन्दोलन से दूर रहकर, अलग पापिस्तान की मांग में लगे रहे.

Friday, 4 August 2017

पं. दीनदयाल उपाध्याय

एकात्म मानववाद के प्रणेता, भारतीय जन संघ के संस्थापक सदस्य एवं अध्यक्ष "पं. दीनदयाल उपाध्याय" 
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प. दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर1916 को मथुरा जिले के छोटे से गाँव नगला चन्द्रभान में हुआ था. इनके पिता का नाम भगवती प्रसाद उपाध्याय तथा माता रामप्यारी थीं. उनकी तीन बर्ष की आयु में उनके पिता का तथा 7 बर्ष की आयु में माता का निधन हो गया. उसके बाद उनका पालन पोषण उनकी ननिहाल में हुआ.
प.दीनदयाल उपाध्याय 
उन्होंने अपने से छोटी कक्षाओं के विद्यार्थियों को ट्यूशन पढाते पढ़ाते, अपनी शिक्षा को जारी रखा. आगरा, पिलानी, कानपुर, प्रयाग से बी. एस.सी. तक शिक्षा प्राप्त की तथा सिविल सेवा की परीक्षा भी उत्तीर्ण की लेकिन उन्होंने अंग्रेज सरकार की नौकरी नहीं की. वे देशवाशियों को जाग्रत करने के उद्देश्य से संघ के पूर्णकालिक प्रचारक बन गए.
उनकी राजनैतिक सुझबूझ से संघ के सरसंघ चालक "श्री गुरुजी" भी बहुत प्रभावित थे. उन्होंने संघ की बिचारधारा का प्रसार करने के लिए, राष्ट्रधर्म, पाञ्चजन्य और स्वदेश जैसी पत्र-पत्रिकाएँ प्रारम्भ की. उन्होंने सभी तरह की बिचार धाराओं का अध्ययन करने के बाद, भारतीय परिवेश के अनुकूल "एकात्म मानववाद" का सिद्धांत दिया.
दीनदयाल उपाध्याय की अवधारणा थी कि - "देश की आजादी के बाद भारत के विकास का आधार, अपनी भारतीय संस्कृति हो, न कि अंग्रेजों द्वारा छोड़ी गयी पाश्चात्य विचारधारा. उनका कहना था कि -“वसुधैव कुटुम्बकम” हमारी सभ्यता और परम्परा है. उनका मानना था कि - केवल "सांस्कृतिक राष्ट्रवाद" ही समस्त भारत को एक रख सकता है.
प. दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार - "भारत में रहनेवाला और इसके प्रति ममत्व की भावना रखने वाला मानव समूह "एक जन" हैं. उनकी जीवन प्रणाली ,कला , साहित्य, दर्शन सब भारतीय संस्कृति है. इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का आधार यह संस्कृति है . इस संस्कृतिमें निष्ठा रहे, तभी भारत एकात्म रहेगा और मानवमात्र में भेदभाव ख़त्म होगा.
प. दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद के सिद्धांत के बिरोध में वामपंथी और पूजीवादी दोनों तरह की विदेशी बिचार धाराओं के लोग थे क्योंकि उन विदेशियों को भय था कि - भारतीय सनातन पद्धति से निर्मित, "सांस्क्रतिक राष्ट्रवाद" के सामने साम्यवाद और पूंजीवाद दोनों धराशाई हो जायेंगे और उनकी राजनीति ख़त्म हो जायेगी.
उनकी क्षमताओं को देखते हुए डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 1951 में भारतीय जन संघ की स्थापना करते समय उनको पार्टी का महासचिव नियुक्त किया. कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय के लिए किये गए आन्दोलन में डा. मुखर्जी की जेल में संदेहास्पद परिस्थितियों में म्रत्यु के बाद उन्होंने संगठन को आगे बढाने की जिम्मेदारी को उन्होंने बखूबी निभाया.
उन्होंने 15 वर्षों तक महासचिव के रूप में जनसंघ की सेवा की. भारतीय जनसंघ के 14वें वार्षिक अधिवेशन में प. दीनदयाल उपाध्याय को दिसंबर 1967 में कालीकट में जनसंघ का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया. 19 दिसंबर 1967 को दीनदयाल उपाध्याय को भारतीय जनसंघ का अध्यक्ष चुना गया,लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था.
11 फ़रवरी, 1968 की सुबह मुग़ल सराय रेलवे स्टेशन पर एक ट्रेन में प. दीनदयाल का निष्प्राण शरीर पाया गया. इसका पता चलते ही सारा देश दु:ख में डूब गया. भारतीय जनसंघ के नेताओं के अलावा, भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और मोरारजी देसाई, आदि ने भी उनको श्रद्धांजलि अर्पित की.
प. दीनदयाल उपाध्याय द्वारा डा. श्यामाप्रसाद जी के साथ मिलकर, "भारतीय जनसंघ" के रूप में लगाया गया पौधा, आज "भारतीय जनता पार्टी" जैसा विशाल ब्रक्ष बन चुका है, जिसको दुनिया का सबसे बड़ा राजनीतक दल कहलाने का सौभाग्य मिला हुआ है. "भारतीय जनता पार्टी" की सोंच में उनका "एकात्म मानववाद" और "सांस्क्रतिक राष्ट्रवाद" ही है.