Friday, 23 June 2017

फिरोज गांधी : प्रसिद्ध परिवार का गुमनाम व्यक्ति



एक व्यक्ति जो खुद सांसद रहा हो, जिसका ससुर, पत्नी और एक बेटा देशा का प्रधान मंत्री रहा हो, जिसका दुसरा बेटा और एक बहू प्रधानमंत्री से भी ज्यादा ताकतवर रहे हों, जिसकी दुसरी बहु भी मंत्री रही हो और जिसके दो पोते भी सांसद हों, वो व्यक्ति इतना "गुमनाम" कैसे हो सकता है? क्या देश को उनके बारे में पता नहीं होना चाहिए ?
जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ "फिरोज गांधी" की , जिनका विवाह इंदिरा गांधी से हुआ था. फिरोज गांधी के बारे में कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं मिली है. लेकिन विबिन्न किताबो और वेवसाइट्स पर जो जानकारी उपलब्ध है उनमे से फिरोज गांधी पर जानकारी ढूँढ़ कर, उसको तर्क की कसौटी पर कस कर, संकलित करने का प्रयास कर रहा हूँ .
फिरोज गांधी का धर्म "पारसी" बताया जाता रहा है. उनके बारे में जानकारी निकालने पर पता चलता हैं कि - उनकी माँ (रत्तीमाई) पारसी थी और पिता ( जहांगीर खान) मुसलमान थे. उनकी माँ भी बाद में मुसलमान बन गई थीं. फिरोजगांधी का अंतिम संस्कार भी हिन्दू या पारसी की तरह नहीं, बल्कि मुस्लिम रीत रिवाज से हुआ था.
हैदराबाद से प्रकाशित होने वाले प्रतिष्ठित उर्दू अखबार "दैनिक मुंसिफ" ने इस तरह का दावा किया है. इस अखबार ने "नेहरू डायनेस्टी" के लेखक "के. एन.राव" के हवाले से दावा किया गया कि - इंदिरा और फिरोज ने लंदन में एक मस्जिद में जाकर निकाह कर लिया था और इंदिरा को मुसलमान धर्म स्वीकार करना पड़ा.
जब इस बात की सूचना नेहरु को मिली तो वे इंदिरा से नाराज हो गए, मगर महात्मा गांधी ने इन दोनों को भारत बुला कर वैदिक पद्धति से उनकी शादी करवा दी. फिरोज जहांगीर खान का नाम, कथित रूप से फिरोज गांधी घोषित कर दिया गया. एक लेखक "मोहम्मद यूनुस" ने अपनी पुस्तक में लिखा था कि संजय गांधी का खतना भी किया गया था.
विकीपीडिया में दावा किया गया है कि - इंदिरा से शादी से पहले, फिरोज के कमला नेहरु से संबंधो की भी अफवाहे उड़ी थी. कुछ शरारती लोगों ने इलाहाबाद में इनके बारे में पोस्टर भी लगा दिए. जेल में बंद जवाहरलाल नेहरू ने इस बारे में खोजबीन के लिए रफ़ी अहमद किदवई को इलाहाबाद भेजा लेकिन किदवई ने इसे को पूरी तरह से बेबुनियाद पाया. लेकिन इसके बाबजूद नेहरु आजीवन कमला और फिरोज से नाराज बने रहे .
एक बार "मीनू मसानी" आनंद भवन में मेहमान थे. वो नाश्ता कर रहे थे कि अचानक नेहरू ने उनकी तरफ़ मुड़ कर कहा था, मानू क्या तुम कल्पना कर सकते हो कि कोई मेरी पत्नी के प्रेम में भी फंस सकता है? मीनू ने तपाक से जवाब दिया, मैं ख़ुद उनके प्रेम में पड़ सकता हूँ. इस पर कमला तो मुस्कराने लगीं, लेकिन नेहरू का चेहरा गुस्से से लाल हो गया."
फिरोज गांधी ने कांग्रेस में रहते हुए भी कांग्रेसियों के भ्रष्टचार के खिलाफ आवाज उठाई थी. फिरोज गांधी को भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाला पहला व्यक्ति माना जाता है. उन्होंने अपने युग के आर्थिक घोटाले (मूंदड़ा कांड, जीप घोटाला) का पर्दाफाश किया था और उसके कारण तत्कालीन वित्त मंत्री टीटी कृष्णामचारी को इस्तीफा देना पड़ा था.

किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसका अंतिम संस्कार उसके धार्मिक रीत रिवाज के अनुसार करने का प्रावधान थे. हिन्दुओं में मृत शरीर को अग्नि में जलाया जाता है, मुस्लिम्स में दफनाया जाता है तथा पारसियों में चील कौओं को खिलाया जाता है. "दैनिक मुंसिफ" का दावा है कि - फिरोज गांधी को मुस्लिम रीत रिवाज से, इलाहाबाद के कब्रिस्तान में दफनाया गया था.

Sunday, 11 June 2017

उनाकोटि शिव मंदिर श्रंखला ( उनाकोटि, कैलाश शहर, त्रिपुरा )

भारत का नार्थ ईष्ट अनेको रहस्य समेटे हुए है. उनमे एक बहुत बड़ा रहस्य है "उनाकोटि". इस स्थान को ज्यादा प्रचार नहीं मिला है वरना इसको दुनिया के सात अजूबों में स्थान मिलना चाहिए था. वर्तमान केंद्र सरकार और त्रिपुरा सरकार ने नार्थईस्ट में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए, उनाकोटि के बारे में शेष भारत को जागरूक करना प्रारम्भ किया है.
इस बर्ष 26-जनवरी की निकाली गई त्रिपुरा की झांकी का थीम भी उनाकोटि को रखा गया था. उनाकोटि का अर्थ होता है करोड़ में एक कम. यहाँ पर भगवान शिव की गाथाओं के ऊपर, एक करोड़ में एक कम ( अर्थात - 99,99,999 ) मूर्तियाँ बनी हुई हैं. इनमे में कुछ को विशाल पहाडी चट्टानों पर उकेरा गया है तथा कुछ को पत्थर के बड़े टुकड़ों पर बनाया गया है.
ऐसा माना जाता है कि - माता सती के द्वारा अपने पिता के यग्य में भष्म होकर प्राण त्याग देने के बाद, भगवान् शिव उनके शव को अपने कंधे पर रखकर, तांडव करते हुए विश्व में विचरण करने लगे, जिससे दुनिया में प्रलय आने की संभावना हो गई, तब भगवान् विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के शव के टुकड़े करना प्रारम्भ कर दिया .
माता सती के शव के अंग जहाँ जहाँ गिरे वे स्थान शक्ति पीठ कहलाते हैं. उनका आखिरी अंग गुवाहाटी के पास कामाख्या में गिरा था. उसके बाद भगवान् शिव का मोह समाप्त हो गया और उन्होंने तांडव को रोक दिया, परन्तु वे बिना कुछ कहे त्रिपुरा के घने जंगल में समाधि लेकर, तपस्या में लीन हो गए. उसके बाद ही शिव को "त्रिपुरारी" भी कहा जाने लगा.
उन दिनों एक राक्षस "तारकासुर" ने धरती पर आतंक मचाना शुरू कर दिया था. उसको कोई मार नहीं सकता था क्योंकि उसे वरदान प्राप्त था कि - केवल भगवान् शिव का पुत्र ही उसका वध कर सकता है और भगवान शिव का कोई पुत्र था नहीं. इसी बीच माता सती ने "देवी पार्वती" के रूप में दोबारा जन्म ले लिया, परन्तु भगवान् शिव अपनी समाधि में ही लींन रहे.
माता पार्वती शिव को पुनः पाने के लिए तप करने लगी. भगवान् शिव में कामना को जगाने के लिए और उनकी तपस्या भंग करने लिए, देवताओं ने "कामदेव" को भेजा. कामदेव और रति ने उनके तप को भंग तो कर दिया, लेकिन शिव के क्रोधित होकर अपना तीसरा नेत्र खोलने से, कामदेव वहीँ भस्म हो गया. क्रोध शांत होने पर देवताओं ने उनको सब समझाया. कामदेव के नाम पर ही नार्थईस्ट का यह क्षेत्र कामरूप कहलाता है.

तब त्रिपुरा के उसी क्षेत्र में माता पार्वती और भगवान शिव का विवाह हुआ और कालांतर में उनके पुत्र कार्तिकेय के हाथों तारकासुर का बध हुआ. कहा जाता है कि - जब भगवान् शिव समाधि में लीन थे, तब कल्लू कुम्हार नामक एक मूर्तिकार ने ने उनकी बहुत सेवा की थी. माता पार्वती और शिव के विवाह में भी उसने बहुत योगदान दिया था.
जब भगवान् शिव वहां से अपने कैलाशधाम को जाने लगे, तो कल्लू कुम्हार ने भी उनके साथ चलते की जिद की. भगवान् शिव उसको सीधे मना भी नहीं कर सकते थे और साथ ले जाना भी संभव नहीं था. इसलिए उन्होंने कल्लू कुम्हार से कहा कि - अगर तुम एक रात में एक करोड़ मूर्तियाँ बना दो, तो हम तुमको भी अपने साथ कैलाश धाम ले जायेंगे.
भगवान् शिव के सानिध्य में रहने से कल्लू को भी दिव्य शक्तिया प्राप्त हो चुकी थीं. उसने उन शक्तियों का प्रयोग करके रातों रात एक करोड़ मूर्तियों का निर्माण कर दिया. लेकिन सुबह जब उनकी गिनती की गई तो, एक करोड़ में एक कम पाई गई. तब भगवान शिव ने कल्लू से कहा कि - तुम यही रहो, यहाँ आने वाला प्रत्येक व्यक्ति तुमको मेरे साथ साथ याद करेगा.
शिव पुराण में भी इस स्थान का जिक्र है. भगवान् शिव के कैलाशधाम जाने के बाद, कल्लू कुम्हार उस स्थान की देखभाल करने लगा. यह स्थान पौराणिक काल का प्रमुख तीर्थ स्थल बन गया था, परन्तु कालान्तर में पूर्वोत्तर में बौद्ध धर्म का प्रभाव बढ़ने के बाद, यह स्थान गुमनामी में खो गया. विधर्मियों के शासन और सुदूर क्षेत्र में होने से लोग इसे भूलने लगे.
त्रिपुरा सरकार और वर्तमान केंद्र सरकार ने इस स्थान को महत्वपूर्ण धार्मिक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने का सकल्प लिया है. इस स्थान पर अच्छी सुविधाए मिलने के बाद देशवासी निश्चित रूप से वहां जाना पसंद करेंगे. यदि ऐसा होता है तो पूर्वोत्तर को शेष भारत से सांस्क्रतिक रूप से जोड़ने में यह स्थान बहुत ही सहायक साबित होगा.

Friday, 9 June 2017

जब राष्ट्र संकट में हो, तो राष्ट्रभक्त किसी निमंत्रण की प्रतीक्षा नही करते.

मगध पर मौर्य वंश का 10 वां राजा "वृहदरथ" राज करता था. वह बहुत ही कायरता वाली मानशिकता का व्यक्ति था. लेकिन अपनी कायरता को छुपाने के लिए अपने आपको अहिंसा का पुजारी बताता था. उसके शासन में सेना को कोई सम्मान नहीं था.
उसके सेनापति का नाम था पुश्यमित्र शुंग. सेनापति पुश्यमित्र शुंग बहुत ही वीर, साहसी और दूरदर्शी था. उन्ही दिनों यवनों ने भारत पर आक्रमण कर दिया. सेनापति पुश्यमित्र ने राजा "वृहदरथ" से युद्ध करने की अनुमति मागी लेकिन राजा ने मना कर दिया.
राजा "वृहदरथ" का कहना था कि - हम यवनों को महात्मा बुद्ध के उपदेश सुनाकर, अहिंसा के रास्ते पर ले आयेंगे. लेकिन इधर यवन मारकाट मचाते हुए लगातार भारत पर चढ़े आ रहे थे. तब सेनापति पुश्यमित्र शुंग ने बिना अनुमति यवनों का रास्ता रोक लिया.
भारत की सेना ने यवनों का संहार कर दिया. सेनापति पुश्यमित्र शुंग ने न तो किसी भी यवन को भागने दिया और न ही किसी यवन को बंदी बनाया. उसने पूरी यवन सेना का बध कर दिया. विजय का समाचार पाकर भी "वृहदरथ" अपने सेनापति पुश्यमित्र से नाराज रहा.
युद्ध की समाप्ति पर सेनापति पुश्यमित्र शुंग ने सैनिको के पथ संचलन (परेड) का कार्यक्रम रखा, जिसमे राजा "वृहदरथ" को सैनिको को बधाई और पुरुष्कार देने थे लेकिन राजा ऐसा करने के बजाय राजाज्ञा उलंघन के लिए सेनापति की आलोचना करने लगा.
वृहदरथ ने पूछा - अहिंसा का अनुसरण करने वाले राज्य में तुमने किसकी आज्ञा से यवनों पर आक्रमण किया. इस पर क्रोधित होकर सेनापति पुश्यमित्र शुंग ने कहा जब - जब राष्ट्र संकट से घिरा हो तो राष्ट्रभक्त किसी निमंत्रण पत्र की प्रतीक्षा नही करते.
और यह कहकर अपनी तलवार के एक ही वार से राजा वृहदरथ का सर काट दिया.एक पल को सन्नाटा छा गया. तब सेनापति ने आगे बढ़कर कहा - " न तो वृहदरथ महत्वपूर्ण था और न मैं महत्वपूर्ण हूँ, अगर महत्व है तो सिर्फ और सिर्फ मातृभूमि का है."
पुश्यमित्र शुंग के ऐसे बचन सुनकर सेना और आम जनता सेनापति की जय जयकार करने लगी और मंत्री परिषद् ने पुश्यमित्र शुंग को अपना नया राजा घोषित कर दिया. इस प्रकार मौर्यवंश का साम्राज्य ख़त्म हुआ और "शुंग वंश" का सूत्रपात हुआ.