मेड़ता की हार से बौखलाए हुए, औरंगजेब के सिपहसालार "तहव्वुर खान" ने विक्रम संवत 1737 भाद्रपद की जन्माष्टमी के अवसर पर, पुष्कर के वराह मंदिर को खंडित करने, 101 गौमाताओं का पुष्कर घाट पर क़त्ल करने और वहां के पुजारियों की हत्या करने की घोषणा कर दी. सप्तमी से पहले 101 स्वस्थ गायें पुष्कर के घाट पर लाकर बाँध दी गईं.
जब यह सूचना कुंवर राज सिंह को मिली तब कुंवर राज सिंह के विवाह की तैयारी चला रही थी. कुंवर राज सिंह ने विवाह मंडप छोड़कर पुष्कर की ओर कूच करने का निर्णय लिया और अपने साथ 700 योद्धाओं को लेकर पुष्कर की ओर चल दिये. दरअसल उन दिनों पूरे राजस्थान में ओरंगजेब की सेनाओ और राजपूतो के बीच जगह जगह युद्ध चल रहे थे.
इसका मुख्य कारण यह था कि औरंगजेब ने विष देकर जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह को धोखे से मरवा दिया था और मारवाड में अपनी सेना भेजकर उस पर अपना अधिकार कर लिया था. बालक महाराज अजीत सिंह को वीरवर दुर्गादास राठौर, आदि स्वामिभक्त सरदारो की संरक्षण मे सुरक्षित करके राठौड सरदारो ने मुगलो के थानो पर आक्रमण शुरू कर दिया था.
राजपूत योद्धाओं ने जोधपुर, सोजत, डीडवाना, सिवाना, आदि पर हमला कर शाही खजाने लूट लिए थे. इसके अलावा कुवंर राजसिंह ने अपने मेडतिया साथियों के साथ मेडता पर हमलाकर वहां के शाही हकीम सदुल्लाह खान को मार दिया. उस समय मेडता अजमेर सूबे मे था. इस खबर से बौखलाए हुए तहव्वुर खान हिन्दुओं को अपमानित करने का निर्णय लिया.
उसने अपनी सेना पुष्कर भेजने की तैयारी कर ली. इस खबर को सुनकर पुष्कर के ब्राह्मणो मे त्राहि त्राहि मच गई. उन्होंने अपना सन्देश कुवंर राजसिंह जी तक भेजा. वे अपने साथ एक 700 वीर योद्धाओं की छोटी से सेना लेकर पुष्कर जी पहुँच गए. उन्होंने वाराह जी के मंदिर में माथा टेकने कर आशीर्वाद लेने के बाद शाही सेना पर हमला कर दिया
उनको हराने के बाद उन्होंने घाट के पास लाकर बाँधी गई गायो को बंधन मुक्त करा दिया और मुगलो की दूसरी टुकडी पर रात्री मे ही हमला कर दिया. सप्तमी की सारी रात और अष्टमी के पूरे दिन यह युद्ध होता रहा. पुष्कर की मिट्टी रक्त से लाल हो गई. इस लड़ाई में पुष्कर में पूरी मुघल सेना का सफाया कर दिया गया. लेकिन नवमी के दिन और बड़ी मुग़ल सेना वहां पहुँच गई.
नवमी को भी भयानक युद्ध हुआ. मुग़ल सेना का सफाया हो गया लेकिन इस लड़ाई में कुंवर राजसिंह, केशरसिंह, सुजाणसिंह, चातरसिंह, रूपसिंह हठी सिंह गोकुल सिंह, आदि भी वीरगति को प्राप्त हो गए. राठौरों के भय से तहव्वुरखां भागकर तारागढ में छुप गया. इस प्रकार वीर राजपूतों ने अपना बलिदान देकर गायों, ब्राह्मणो, मंदिरों एवं पुष्कर तीर्थ की रक्षा की.
आजादी के बाद नेहरू सरकार ने पुष्कर के गौ घाट का नाम गौ घाट से बदलकर महात्मा गांधी घाट कर दिया. उनका तर्क यह था कि यहाँ पर महात्मा गांधी की चिता की राख का कुछ अंश विसर्जित किया गया था. लेकिन सभी यह मानते है कि महात्मा गांधी घाट नाम रखने की मंशा केवल यह थी कि लोग गायो की हत्या और राजपूतों के बलिदान की बात भूल जाएँ.
इसलिए सरकारी कागजों में इस घाट का नाम भले ही महात्मा गांधी घाट कर दिया हो लेकिन सभी इसे गौघाट ही कहते है