Friday, 27 September 2024

पुष्कर का गौ घाट का युद्ध

हरिद्वार की तरह पुष्कर भी हिन्दुओं का बहुत बड़ा तीर्थस्थल है. पुष्कर सरोवर में कुल 52 घाट बने हुए है, जिनमे सबसे बड़ा गऊघाट है. पुष्कर में भगवान ब्रह्मा का प्रशिद्ध मंदिर है. ऐसा माना जाता है कि चारों धाम (बद्रीनाथ, जगन्नाथ, रामेश्वरम और द्वारका) के दर्शन कर लिए हैं, लेकिन आपने पुष्कर का दर्शन नहीं किया है तो आपकी यात्रा सफल नहीं मानी जाएगी.

मेड़ता की हार से बौखलाए हुए, औरंगजेब के सिपहसालार "तहव्वुर खान" ने विक्रम संवत 1737 भाद्रपद की जन्माष्टमी के अवसर पर, पुष्कर के वराह मंदिर को खंडित करने, 101 गौमाताओं का पुष्कर घाट पर क़त्ल करने और वहां के पुजारियों की हत्या करने की घोषणा कर दी. सप्तमी से पहले 101 स्वस्थ गायें पुष्कर के घाट पर लाकर बाँध दी गईं.
जब यह सूचना कुंवर राज सिंह को मिली तब कुंवर राज सिंह के विवाह की तैयारी चला रही थी. कुंवर राज सिंह ने विवाह मंडप छोड़कर पुष्कर की ओर कूच करने का निर्णय लिया और अपने साथ 700 योद्धाओं को लेकर पुष्कर की ओर चल दिये. दरअसल उन दिनों पूरे राजस्थान में ओरंगजेब की सेनाओ और राजपूतो के बीच जगह जगह युद्ध चल रहे थे.
इसका मुख्य कारण यह था कि औरंगजेब ने विष देकर जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह को धोखे से मरवा दिया था और मारवाड में अपनी सेना भेजकर उस पर अपना अधिकार कर लिया था. बालक महाराज अजीत सिंह को वीरवर दुर्गादास राठौर, आदि स्वामिभक्त सरदारो की संरक्षण मे सुरक्षित करके राठौड सरदारो ने मुगलो के थानो पर आक्रमण शुरू कर दिया था.
राजपूत योद्धाओं ने जोधपुर, सोजत, डीडवाना, सिवाना, आदि पर हमला कर शाही खजाने लूट लिए थे. इसके अलावा कुवंर राजसिंह ने अपने मेडतिया साथियों के साथ मेडता पर हमलाकर वहां के शाही हकीम सदुल्लाह खान को मार दिया. उस समय मेडता अजमेर सूबे मे था. इस खबर से बौखलाए हुए तहव्वुर खान हिन्दुओं को अपमानित करने का निर्णय लिया.
उसने अपनी सेना पुष्कर भेजने की तैयारी कर ली. इस खबर को सुनकर पुष्कर के ब्राह्मणो मे त्राहि त्राहि मच गई. उन्होंने अपना सन्देश कुवंर राजसिंह जी तक भेजा. वे अपने साथ एक 700 वीर योद्धाओं की छोटी से सेना लेकर पुष्कर जी पहुँच गए. उन्होंने वाराह जी के मंदिर में माथा टेकने कर आशीर्वाद लेने के बाद शाही सेना पर हमला कर दिया
उनको हराने के बाद उन्होंने घाट के पास लाकर बाँधी गई गायो को बंधन मुक्त करा दिया और मुगलो की दूसरी टुकडी पर रात्री मे ही हमला कर दिया. सप्तमी की सारी रात और अष्टमी के पूरे दिन यह युद्ध होता रहा. पुष्कर की मिट्टी रक्त से लाल हो गई. इस लड़ाई में पुष्कर में पूरी मुघल सेना का सफाया कर दिया गया. लेकिन नवमी के दिन और बड़ी मुग़ल सेना वहां पहुँच गई.
नवमी को भी भयानक युद्ध हुआ. मुग़ल सेना का सफाया हो गया लेकिन इस लड़ाई में कुंवर राजसिंह, केशरसिंह, सुजाणसिंह, चातरसिंह, रूपसिंह हठी सिंह गोकुल सिंह, आदि भी वीरगति को प्राप्त हो गए. राठौरों के भय से तहव्वुरखां भागकर तारागढ में छुप गया. इस प्रकार वीर राजपूतों ने अपना बलिदान देकर गायों, ब्राह्मणो, मंदिरों एवं पुष्कर तीर्थ की रक्षा की.
आजादी के बाद नेहरू सरकार ने पुष्कर के गौ घाट का नाम गौ घाट से बदलकर महात्मा गांधी घाट कर दिया. उनका तर्क यह था कि यहाँ पर महात्मा गांधी की चिता की राख का कुछ अंश विसर्जित किया गया था. लेकिन सभी यह मानते है कि महात्मा गांधी घाट नाम रखने की मंशा केवल यह थी कि लोग गायो की हत्या और राजपूतों के बलिदान की बात भूल जाएँ.
इसलिए सरकारी कागजों में इस घाट का नाम भले ही महात्मा गांधी घाट कर दिया हो लेकिन सभी इसे गौघाट ही कहते है

Saturday, 7 September 2024

मार्कण्डेय ऋषि

सनातन धर्मावलम्बियों के घरों में आपने अक्सर ही एक चित्र देखा होगा, जिसमें एक किशोर शिवलिंग से भावपूर्वक लिपटा हुआ है और पीछे खड़े भगवान शिव उस किशोर के प्राण हरने को उद्यत यमराज पर प्रहार कर रहे हैं. यही किशोर आगे चलकर चिरंजीवी महामुनि मार्कण्डेय के रूप में प्रसिद्ध हुआ.

वे आठ चिरंजीवी महामानवों में से एक हैं. अर्थात अश्वत्थामा, दैत्यराज बली, वेद व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम और मार्कण्डेय ऋषि सदैव जीवित हैं. इन सबमें भी मार्कण्डेय ऋषि आयु में शेष सभी से बड़े हैं. मार्कण्डेय ऋषि के चिरंजीवी बनने की कथा पद्मपुराण के उत्तरखंड में है.
ऋषि मृकंदु और उनकी पत्नी मरुदमती ने शिव की तपस्या की और उनसे पुत्र प्राप्त करने का वरदान मांगा. शिव ने मृकंदु से पूछा था कि ‘तुम्हें दीर्घ आयु वाला गुणहीन पुत्र चाहिए या अल्प आयु वाला गुणवान पुत्र ? तब मृकण्डु ने गुणवान पुत्र की कामना की. भगवान शिव ने मार्कण्डेय की आयु 16 वर्ष निश्चित की.
जब मार्कण्डेय का सोलहवां वर्ष प्रारम्भ हुआ तो पिता शोक से भर गए. कारण पूछने पर पिता ने अल्पायु की कथा बताई तो वे माता-पिता की आज्ञा लेकर केरल के त्रिप्रंगोड में समुद्र के तट पर गए और वहां शिवलिंग स्थापित कर आराधना में जुट गए. उन्होंने महामृत्युञजय मन्त्र की रचना की और जाप करने लगे.
तय समय पर काल उनके प्राण हरने आ पहुंचा. तब किशोर मार्कण्डेय ने कहा कि मैं भगवान् शिव के महामृत्युंजय मन्त्र का जाप कर रहा हूं, इसे पूरा कर लूं, तब तक ठहर जाओ. मगर काल नहीं माना और बलपूर्वक मार्कण्डेय को ग्रसना चाहा. भक्त की पुकार पर उसी समय शिवलिंग से महादेव प्रकट हुए.
भगवान् शिव ने हुंकार भरकर काल की छाती पर चरण से प्रहार किया. इसी घटना के बाद शिवजी का नाम कालान्तक पड़ा. भगवान् शिव ने न केवल मार्कण्डेय के प्राणों की रक्षा की बल्कि उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें सदा सर्वदा के लिए काल-मुक्त कर चिरंजीवी होने का वरदान दे दिया,
कुछ विद्वानों का मानना है कि यह घटना कैथी (वाराणसी जिला) में गोमती नदी के तट पर हुई थी, जहाँ गंगा नदी और गोमती नदी का संगम होता है. इस स्थल पर एक प्राचीन मंदिर मार्कंडेय महादेव मंदिर बना हुआ है. गंगा नदी और गोमती नदी संगम क्षेत्र होने के कारण इसकी पवित्रता और भी बढ़ जाती है.
हरियाणा के लोगों का मानना है कि यह घटना अम्बाला और कुरुक्षेत्र के बीच स्तिथ शाहबाद मारकंडा कसबे में मारकंडा नदी के किनारे की है. यहाँ भी मारकंडा नदी के किनारे, राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे, मारकंडेश्वर महादेव का भव्य मंदिर बना हुआ है. बड़ी संख्या में भक्त या पूजा करने आते हैं.
गायत्री मंत्र की भांति महामृत्युंजय मंत्र को भी अत्यंत प्रभावी मन्त्र माना जाता है. विद्वानों का कहना है कि यह मंत्र सबसे पहले ऋग्वेद के सातवें मंडल के 59वें सूक्त में आया. रुद्र देवता के प्रति ऋषि वसिष्ठ द्वारा अनुष्टुप छंद में कृत यह इस सूक्त का बारहवां मंत्र है, जो बाद में यजुर्वेद से होते हुए अन्यत्र पहुंचा.

विद्वानों का कहना है कि मार्कण्डेय ने केवल इस मन्त्र का केवल जाप किया था लेकिन लोक-विश्वास है कि महामृत्युंजय मंत्र की रचना भी मार्कण्डेय ने ही की और इसी के बल पर स्वयं को मृत्यु से बचाकर चिर जीवन पाया, इसीलिए प्रियजनों को जीवनदान के निमित्त लोग इसका जाप कराते हैं.
वाल्मीकि रामायण के अनुसार मार्कण्डेय महाराज दशरथ के ऋत्विज (यज्ञ कराने वाला) थे और भगवान श्रीराम के विवाह में बराती बन मिथिला भी गए थे. राजा बनने के बाद श्रीराम के आमंत्रण पर ये उनकी सभा में पधारे थे और केवल इतना ही नहीं, मार्कण्डेय जी सीता के रसातल में प्रवेश के भी साक्षी बने थे.
इन्होंने नचिकेता से शिव सहस्रनाम का उपदेश ग्रहण कर उसे उपमन्यु को दिया था. महाभारत के अनुसार महामुनि मार्कण्डेय ने धृतराष्ट्र को त्रिपुराख्यान सुनाया था. वे युधिष्ठिर की राजसभा में भी आए थे और भीष्म के शरशय्याशायी होने पर अनेक ऋषि-मुनियों के साथ उनके पास खड़े हुए थे.
महाभारत के वनपर्व में 51 अध्यायों का एक समूचा उपपर्व मार्कण्डेय मुनि को ही समर्पित है. इस अवसर पर काम्यकवन में पाण्डवों के पास उपस्थित स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने मार्कण्डेय का पूजन किया था. इस विस्तृत उपपर्व में मार्कण्डेय मुनि ने कर्मफल सहित अनेक प्रश्नों पर जो उपदेश दिया.
लगभग सभी पुराणों में मार्कण्डेय ऋषि का सादर स्मरण किया गया है. स्वयं मार्कण्डेय के नाम से एक ‘मार्कण्डेय पुराण’ है. देवी पार्वती ने भी उन्हें एक पाठ लिखने का वरदान दिया था, उनके द्वारा लिखा गया यह पाठ "दुर्गा सप्तशती" के रूप में जाना जाता है, जो मार्कंडेय पुराण में एक मूल्यवान भाग है.
मार्कण्डेय इतने महिमावान हैं कि उनकी ख्याति उत्तर से दक्षिण तक फैली हुई है. उत्तर से लेकर दक्षिण तक के लोग उन्हें अपना मानते है और उनकी विरासत पर दावा करते हैं. सत्य तो यह है कि मार्कण्डेय ऋषि का वास्तविक जन्म या तपस्थल अज्ञात है लेकिन उनका व्यक्तित्व और कृतित्व सर्वज्ञात है.
जिस प्रकार शिवभक्ति कर उन्होंने चिरंजीवी जीवन पाया, उसका प्रतीक यह है कि भाव प्रबल हो तो पत्थर से भी परमात्मा प्रकट हो जाता है. अपने उपदेशों में हर युग में मार्कण्डेय सिखाते हैं कि जो व्यक्ति तन व मन से जितना अधिक सात्विक जीवन जीता है, वही व्यक्ति दीर्घायु और मृत्युंजयी होता है.