Sunday, 13 September 2020

AIIMS की संस्थापक राजकुमारी अमृत कौर अहलूवालिया

राजकुमारी अमृत कौर आहलुवालिया का जन्म 2 फ़रवरी 1889 को उत्तर प्रदेश राज्य के लखनऊ नगर में हुआ था. इनकी उच्च शिक्षा इंग्लैंड में हुई. ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से एम. ए. पास करने के उपरांत वह भारत वापस लौटीं. वे रेडक्रास के साथ जुड़ गई और विश्वयुद्ध के दौरान अपनी उल्लेखनीय सेवाएं दी.

1945 में यूनेस्को की बैठकों में सम्मिलित होने के लिए जो भारतीय प्रतिनिधि दल लंदन गया था, वे उसकी उपनेत्री थी. 1946 में जब यह प्रतिनिधिमंडल यूनेस्को की सभाओं में भाग लेने के लिए पेरिस गया, तब भी वे इसकी उपनेत्री (डिप्टी लीडर) थीं. 1948 और 1949 में वे 'आल इंडिया कॉन्फ्रेंस ऑफ सोशल वर्क' की अध्यक्षा रहीं.
1947 से लेकर 1957 तक वे भारत सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रहीं. 1950 में वे "वर्ल्ड हेल्थ असेंबली" की अध्यक्षा निर्वाचित हुई. 1950 से 1964 वे "लीग ऑफ रेडक्रास सोसाइटीज' की सहायक अध्यक्ष रहीं. 1948 से 1964 १९६४ तक "सेंट जॉन एमबुलेंस ब्रिगेड" की चीफ कमिशनर तथा "इंडियन कौंसिल ऑफ चाइल्ड वेलफेयर" की मुख्य अधिकारिणी रहीं.
1957 में नई दिल्ली में उन्नीसवीं इंटरनेशनल रेडक्रास कॉन्फ्रेंस राजकुमारी अमृत कौर आहलुवालिया की अध्यक्षता में हुई. राजकुमारी को खेलों से बड़ा प्रेम था. नेशनल स्पोर्ट्स क्लब ऑव इंडिया की स्थापना इन्होंने की थी और इस क्लब की वह अध्यक्षा शुरु से रहीं. उनको टेनिस खेलने का बड़ा शौक था. कई बार टेनिस चैंपियनशिप उनको मिली.
वे "हिंद कुष्ट निवारण संघ' की संस्थापक अध्यक्ष थी, इसके अलावा वे 'जलियावाला बाग नेशनल मेमोरियल ट्रस्ट की ट्रस्टी", "कौंसिल ऑफ साइंटिफिक एन्ड इंडस्ट्रियल रिसर्च" की गवनिंग बाडी की सदस्या भी थीं. राजकुमारी एक विदुषी महिला थीं, उन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय, स्मिथ कालेज, वेस्टर्न कालेज, मेकमरे कालेज आदि से डाक्ट्रेट मिली थी.
उन्होंने हिमाचल के मंडी से उन्होंने पहला चुनाव लड़ा था व आजाद भारत की पहली स्वास्थ्य मंत्री रही. दिल्ली में एम्स की स्थापना के लिए सबसे ज्यादा श्रेय उन्ही को जाता है. अनेको देशो में घूमने और रेडक्रास जैसी संस्थाओं के साथ जुड़े होने के कारण उनके मन में एक बहुत बड़े हस्पताल और मेडिकल कालेज की रूपरेखा बनी हुई थी.
राजकुमारी अमृत कौर ने जब नेहरू के सामने एक ऐसा हॉस्पिटल बनाने का प्रस्ताव रखा तब नेहरू ने फंड की कमी का हवाला देकर मना कर दिया. तब उन्होंने अपनी 100 एकड़ पैतृक जमीन बेचकर एम्स के लिए प्रारम्भिक पूंजी की व्यवस्था की. उसके बाद उन्होंने अनेको राजपरिवारो तथा तथा विदेशी संस्थाओं से चंदा लेकर एम्स का निर्माण कराया.
वे एम्स की अध्यक्षा भी रहीं. उन्होंने मनाली और शिमला के अपने बंगले भी एम्स के नाम कर दिए जिससे कि- एम्स में काम करने वाले डॉक्टर / नर्स छुट्टियां मनाने के लिए वहां रुक सके. इंग्लैण्ड में रहने के दौरान राजकुमारी अमृत कौर ईसाई धर्म अपना लिया था लेकिन भारत में आने के बाद उनका रुझान फिर से हिन्दू और सिक्ख धर्म की तरफ हो गया था.
उनकी मृत्यु 2 अक्टूबर 1964 को दिल्ली में हुई. उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा के रूप में कहा था कि - उनके शव को ईसाईयों की तरह दफनाया न जाए बल्कि उनका अग्नि संस्कार किया जाए. उनकी अंतिम इच्छा का मान रखा गया और उनका अंतिम संस्कार भारतीय पद्धति के साथ किया गया. राजकुमारी जी को सादर नमन

Thursday, 3 September 2020

नरपति सिंह रैकवार

राजा नरपति सिंह रैकवार माधोगंज रुइयाँ के राजा थे. 1867 में अनेकों देशी रियासतों में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह के सुर उठने लगे थे. ऐसे में एक दिन नाना साहब पेशवा का एक दूत रोटी का टुकड़ा और कमल का फूल लेकर रुइया गढ़ी स्थित नरपति सिंह के दरबार में पहुंचा.

कमल क्रांति का चिन्ह व रोटी का टुकडा सभी जाति -वर्ग में भाईचारे व संगठन का प्रतीक था । रुइया नरेश ने इसे स्वीकार करते हुए नाना साहब को पैगाम भेजा और संकल्प लिया की जब तक जिन्दा रहूँगा तब तक देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने के लिए संघर्ष करता रहूँगा.
नरपति सिंह रैकवार जी ने नाना साहब को यह भी सन्देश दिया कि सारी देशी रियासतें मई माह में एक साथ अंग्रेजों पर हमला करना चाहिए. नरपति सिंह ने सगे भाई बेनी सिंह को मुख्य सेनापति बनाकर तीन कमान बनाई , जिसका नेतृत्व बस्ती सिंह, लखन सिंह व बद्री ठाकुर कर रहे थे.
लेकिन इसी बीच 29 मार्च, 1857 को बैरकपुर छावनी में सैनिक मंगल पाण्डेय ने विद्रोह कर दिया. इसके कुछ दिन बाद लखनऊ में भी विद्रोह हो गया. उस समय अंग्रेजी फौज ने मल्लावां को हेड क्वाटर बना रखा था. अंग्रेजों ने लखनऊ को घेरने के लिए सेना भेजने का आदेश दे दिया,
मल्लावां के डिप्टी कमिशनर डब्लू. सी. चैपर को जब विद्रोह का समाचार मिला तो उन्होंने अंग्रेजी सेना के सचिव कैप्टन हैचिनशन को माधौगंज की ओर न जाने की सलाह दी, लेकिन हैचिनशन अपनी जिद पर अड़ा रहा और अपनी सेना को माधोगंज की तरफ भेज दिया.
लेकिन नरपति सिंह और बरुआ के गुलाब सिंह ने अपनी सेना के साथ अंग्रेजी सेना का रास्ता रोक लिया. 15 मई 1857 को संडीला में भीषण युद्ध हुआ और उन्होंने अंग्रेज सेना का वो हाल किया कि लगभग डेढ़ साल तक अंग्रेज हरदोई जिले में पैर नहीं जम सके.
संडीला की लड़ाई में जीत के बाद रुइयाँ अंग्रेजों के दुश्मनो का केंद्र बन गया. देशी रियासतों के राजा और सैनिको के साथ साथ स्वतंत्र रूप से अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहे स्वाधीनता सेनानी भी रुइयाँ पहुँचने लगे. यह देखकर हैचिनशन वहां से भाग गया.
पास की एक छोटी रियासत "गंजमुरादाबाद" का नवाब अंग्रेजों का पिट्ठू था. 3 जून 1857 रुइया नरेश ने गंजमुरादाबाद पर आक्रमण कर नवाब को पकड़ लिया तथा उसके भतीजे को नवाब बना दिया. इससे डिप्टी कमिशनर चैपर भी बौखला गया और अक्रामक हो उठा.
8 जून 1857 को नरपति सिंह कुछ क्रांतिकारियों को लेकर मल्लावां पर चढ़ाई कर दी. तब चैपर भागकर संडीला चला गया. क्रांतकारियों ने बड़ी संख्या में अंग्रेजों का कत्लेआम किया और देशी मूल के अंग्रेजी सैनिकों को कैद कर लिया तथा तहसील, अदालत व थाना फूंक दिया.
इसके अलावा उन्होंने बरबस के सोमवंशी मुआफ़िदारो के मुखिया माधोसिंह (जिसे अवध को शासन में मिलाने के बाद अंग्रेजों ने थानेदार नियुक्त किया था) पर आक्रमण कर उसकी बस्ती को जला दिया और अंग्रेजों के पिट्ठू माधोसिंह को भी कैद कर लिया.
राजा नरपति सिंह का रौद्र रूप देखकर अंग्रेज और अंग्रेजों के भारतीय चमचे दहल गए. नाना साहब पेशवा के कहने पर के बिठूर से तात्या टोपे और फैजाबाद से मौलवी लियाकत अली भी उनसे मिलने आये और साथ मिलकर अंग्रेजों से लड़ने पर सहमति बनाई.
उधर दिल्ली के बादशाह बहादुर शाह जफ़र को अंग्रेजों ने कैद कर लिया और अंग्रेज अफसर हडसन ने बादशाह के सामने ही उनके दो बेटों को मौत के घाट उतार दिया. बादशाह का बड़ा शहजादा फिरोजशाह किसी तरह से भागकर संडीला पहुंचा और राजा नरपति सिंह से मुलाक़ात की.
राजा के इशारे पर फिरोजशाह के वीर साथी लक्कड़ शाह ने संडीला के आस-पास का क्षेत्र स्वंतत्र कर लिया तथा मौलवी लियाकत अली ने बिलग्राम, सांडी, पाली और शाहाबाद तक अंग्रेज परस्तों को मार गिराया. इस लड़ाई के मुख्य रणनीतिकार नरपति सिंह रैकवार ही थे,
उनकी विजय को देखकर शिवराजपुर के राजा सती प्रसाद सिंह तथा बांगरमोऊ के ज़मीदार जसा सिंह भी वहां आकर राजा के सहयोगी बन गए. बेरुआ स्टेट के सरबराकार गुलाब सिंह लखनऊ, रहीमाबाद व संडीला की लड़ाई लड़ते हुए नरपति सिंह के सहयोग में आ मिले.
अब तक अंग्रेजों से लड़ाई देश के काफी बड़े हिस्से में फ़ैल चुकी थी. कई जगह अंग्रेज जीत रहे थे और कई जगहों पर भारत के स्वाधीनता सेनानी. लेकिन कोई भी अंग्रेज अधिकारी नरपति सिंह रैकवार का सामना करने जाने की हिम्मत तक नहीं कर पा रहा था.
अंततः अंग्रेजों ने अपने बहुत बड़े अधिकारी ब्रिगेडियर होप के साथ 10 लेफ्टिनेंट वाली एक बड़ी फ़ौज भेजी. 15 अप्रैल 1818 को राजा नरपत सिंह एवं अंग्रेजी सेना के बीच युद्ध हुआ जिसमें राजा नरपति सिंह जी की सेना ने ब्रिगेडियर होप एवं पांच लेफ्टिनेंट कर्नल सहित 58 अंग्रेज सैनिकों को मार गिराया
उन्होंने अंग्रेजी सेना को सवाजपुर तक खदेड़ दिया. ब्रिगेडियर होप अंग्रेजों की रानी विक्टोरिया का सगा ममेरा भाई था. जब लन्दन में ब्रिगेडियर होप की मौत की खबर पहुंची तो इनलैंड का झंडा झुका दिया गया और सात दिन का राष्ट्रीय शोक घोषित किया गया
माधौगंज में स्थित रुइया नरेश श्री नरपति सिंह का किला इस समय जीर्ण-शीर्ण हालत में पहुंच चूका है. मेरा योगी सरकार से निवेदन है कि उस किले का जीर्णोद्धार कराया जाए जिससे कि लोग यहाँ आकर आजादी की लड़ाई के नायकों को श्रद्धंजलि दे सकें.

इस विजय के उपलक्ष में राजा नरपत सिंह स्मारक संस्थान हर साल 15 अप्रैल को बड़ी धूमधाम से विजय दिवस समारोह मनाती है. इस बर्ष कोरोना महामारी के कारण यह समारोह स्थगित किया गया है. लेकिन हम अपने घर पर तो उन्हें याद कर ही सकते हैं
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