Saturday, 28 March 2020

हम तो आदिकाल से ही "क्वारेंटाईन" कर रहे हैं, आपको अब समझ आया है.

Image may contain: one or more people, possible text that says 'दुनिया ने अपनाई भारतीय संस्कृति नमस्ते bnl www.punjabkesari.in'भारत के ऋषि मुनियों ने हमेशा स्वछता और पवित्रता को महत्त्व दिया और इसे दैनिक जीवन में प्रयोग करने को कहा. मगर अपने आपको प्रगतिवादी कहने वाले तथाकथित आधुनिक लोग हमारी परम्पराओं को रूढ़िया कहकर धिक्कारते थे. आज जब कोरोना वायरस मौत बनकर सर पर मंडरा रहा है तो इनको समझ आया है कि- हमें क्वारेंटाईन होना चाहिये.
भारतीय संस्कृति में एक शब्द इस्तेमाल होता है "सूतक" इसका पर्यायवाची किसी अन्य भाषा में नहीं है क्योंकि कहीं और "सूतक" मनाया ही नहीं जाता. कोई व्यक्ति ऐसा कोई भी कार्य करता है, जिसमे उसकेे विषाणुओं के संपर्क में आने की संभावना हो, तो जबतक वह व्यक्ति पूरी तरह शुद्ध न हो जाए तब तक वह सूतक (क्वारेंटाईन) में रहता है.
हमारे यहाँ जब किसी बच्चे का जन्म होता है तो कुछ दिन की "क्वारेंटाईन"(सूतक) होती है. जच्चा - बच्चा को अलग कमरे में रख दिया जाता है. उनको क्वारेंटाईन कर दिया जाता है जिससे न तो कोई बाहरी वायरस नवजात को नुकशान पहुंचाय और न ही बच्चे के जन्म की प्रिक्रिया में निकले अपशिष्टों में उत्पन्न वायरस बाहरी लोगों को कोई नुकशान पहुंचाए.
हम जानते थे क़ि- मृतक के शरीर से अनेको वैक्टीरिया और वायरस रिलीज होते हैं. इसलिए मृतक का दाह संस्कार कर पार्थिव शरीर को पूरी तरह से नष्ट कर देते थे. इसके साथ की मृतक का परिवार "क्वारेंटाईन" में चला जाता था. जब तक शुद्धिकरण न हो जाए तब तक बाहरी लोग उन्हें छूने से परहेज करते है और कोई उनके घर में कुछ खाता पीता भी नहीं है.
सनातनी लोग जब किसी की शवयात्रा में जाते हैं, तो आज भी वे घर के बाहर ही नहाते हैं और कपडे बदलते है. जब तक शुद्ध न हो जाए तब तक अपने घर के भीतर प्रवेश नहीं करते है और न ही अपने परिजनों को स्पर्श करते हैं. लेकिन जानवरों की तरह आपस में चिपकने वाले विदेशी म्लेच्छ हमें जाहिल और रूढ़िवादी बताते थे
जिस व्यक्ति की मृत्यु होती है, उसके उपयोग किये गए, सारे रजाई-गद्दे चादर तक ‘‘सूतक’’ मानकर बाहर फेंक देते हैं. मृतक के परिजन, जो सबसे ज्यादा देर तक शव के साथ रहते हैं वे अपना सर मुंडा लेते हैं, ताकि घर से बाहर जाने पर कोई बाहरी व्यक्ति देखते ही समझ जाए और थोड़ा दूर रहकर बात करे , गले मिलने या छूने का प्रयास न करे.
मंदिर आदि जैसे सार्वजनिक स्थल पर जाने वालों के लिए नियम बनाया कि - जिसके घर बच्चे का जन्म हुआ है या जिसके घर किसी की मृत्यु हुई है वो कुछ दिनों तक मंदिर न जाए. इसके अलावा कोई भी बिना स्नान के मंदिर न आये, रजस्वला स्त्रियां मंदिर न जाए. कोई भी अशुद्ध खान पान या आचरण किया है तो शुद्ध होने से पहले मंदिर न जाए.
Image may contain: one or more people, ocean, sky, beach, outdoor, water and natureसूर्ग्रगृहण और चन्द्रग्रहण के सूतक काल में भोजन नहीं करते. उस समय मंदिर बंद कर दिए जाते है. ग्रहण का सूतककाल समाप्त हो जाने के बाद मंदिरों की धुलाई की जाती है. उसके बाद ही मंदिर को श्रद्धालुओं के लिए खोला जाता है. मल - मूत्र विसर्जन के बाद जब तक अच्छी तरह से हाथ न धो ले तब तक हम क्वारेंटाईन में रहते हैं.
केवल इतना ही नहीं , हम ध्वनि तरंगों का महत्व भी जानते थे और इसी लिए मंदिर में शंख और घंटो को बजाने का नियम बनाया. प्रातःकाल और सायंकाल सभी मंदिरों में एक साथ शंखनाद और घंटों की आवाज होने से, उनसे निकली साउंड वेव्स से सूक्ष्म विषाणु नष्ट हो जाते हैं. मगर तथाकथित आधुनिक लोगों को यह पाखंड लगता है.
हम नियमित हवन कर वातावरण को शुद्ध करने वाले लोग है. हम केवल आग ही नहीं जलाते बल्कि शुद्ध लकड़ी (समिधा) तथा शुद्ध सामिग्री और शुद्ध घी का भी ध्यान रखते है. कीटाणु नाशक सुगन्धित पदार्थों को उपयोग करने के पीछे यही कारण है. घर में हर रोज हवन नहीं कर सकते इसलिए प्रतिदिन दो बार आरती और धूप जलाने का नियम बनाया.
हमने भोजन की शुद्धता को महत्व दिया, बनाने से लेकर खाने तक शुद्धता का ध्यान रखा. भोजन करने के पहले अच्छी तरह हाथ मुँह धोते हैं. सभी लोग अलग अलग बर्तन में भोजन करते हैं. कोई किसी का जूठा नहीं खाता है. थाली में भोजन नहीं छोड़ते. अगर थाली में कभी बच भी जाए तो उसे इधर उधर फेंकने के बाजय पालतू पशुओं को खिला देते हैं.
जूते / चप्पल बाहर उतारना, हाथ पैर धोने के बाद घर में प्रवेश करना, नियमित नहाना और कभी कभी नहाने के पानी मे नीम के पत्ते डालना, आदि यह सब शुद्धिकर ही था कोई पाखंड नहीं. हम हमेशा एक दूसरे को छूने से बचते थे. जो लोग बात बात चिपकने की कोशिश करते हैं उनके यह छुआछूत लगता था. पर आज वे क्वारेंटाईन कर रहे हैं.
हम नवबर्ष का स्वागत नौ दिन माता की पूजा से से करते है. घर की साफ़ सफाई करते हैं, हवन करते है, गाय के गोबर के उपले जलाते हैं, कपूर, लौंग, आदि की आहुति देकर वातावरण को शुद्ध करते हैं. 6 माह बाद इस प्रिक्रिया को फिर से दोहराते है. जबकि वो तथाकथित आधुनिक लोग मांस मदिरा का सेवन कर हंगामा करके अपना नवबर्ष मनाते हैं.
Image may contain: fire and food, possible text that says 'अंतिम संस्कार का क्या है वैज्ञानिक महत्व? क्यों किया जाता है अंतिम संस्कार?'हम अगर प्रतिदिन नहाते है, प्रतिदिन कपडे बदलते है, शरीर और घर को शुद्ध रखते है, जबरन हर किसी के गले पड़ने से बचते है, आदि तो इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि- हम जाहिल, दकियानूसी और गंवार है बल्कि हम सुसंस्कृत, समझदार, अतिविकसित महान संस्कृति को मानने वाले हैं. हम अतिसूक्ष्म विज्ञान को समझते हैं आत्मसात करते हैं.
हम उन अतिसूक्ष्म जीवाणुओं का महत्व जानते है जो हमारे शरीर पर प्रभाव डालते हैं. आज हमें गर्व होना चाहिऐ हम ऐसी संस्कृति में जन्में हैं जहॉ ‘‘सूतक’’ अर्थात "क्वारेंटाईन" को हजारों साल से अपनाया जा रहा है. यह हमारी प्राचीन जीवन शैली हैं, हम उन म्लेच्छों की तरह आज किसी कोरोना वायरस के भय से "क्वारेंटाईन" नहीं हो रहे हैं.

Friday, 6 March 2020

संघ ( RSS ) को लेकर अंधबिरोधियों का प्रपंच

Image result for rss में भोजनअंधबिरोधियों द्वारा एक वीडियो वायरल की जा रही है जिसमे एक व्यक्ति अपने आपको संघ का पूर्व सदस्य बता रहा है और कह रहा है कि - वह 5 साल तक संघ सदस्य रहा और वहां की बुराइयों को देखने के बाद उसने संघ को छोड़ दिया. जैसा कि सभी जानते हैं कि-अंधबिरोधियों का काम केवल सवाल उठाना होता है जबाब सुनना नहीं.
इसलिए यह पोस्ट लिखकर जबाब दे रहा हूँ. अगर आपको कहीं कोई ये वीडियो डालकर सवाल करे, तो आप उसका जबाब दे सकें. सबसे पहले तो अपने आपको पूर्व संघी बताने वाले इन महाशय से ये पूंछना चाहता हूँ कि - वे कब से कब तक संघ में थे और आपके पास संघ का कौन सा दायित्व था ? मुझे पता है वे इस पहले सवाल का भी जबाब नहीं दे पाएंगे.
अब मैं वीडियो में उनके द्वारा कही गई हर बात को सत्य मानते हुए, केवल उनकी बताई बातों का ही जबाब देना चाहता हूँ. इस व्यक्ति ने अपनी बात शुरू की थी फिरोज खान नाम के विद्वान व्यक्ति द्वारा संस्कृत भाषा के पढ़ाने को लेकर हुए बिरोध को लेकर. तो इसका जबाब ये हैं कि - ये बिरोध कालेज के विद्यार्थियों ने किया था न कि आरएसएस ने.
कालेज में भी फिरोज खान के संस्कृत भाषा या संस्कृत साहित्य पढ़ाने का किसी ने बिरोध नहीं किया था. दरअसल फ़िरोज खान की नियुक्ति संस्कृत भाषा एवं साहित्य विभाग में हुई थी और वे वैदिक धर्म शास्त्र और अनुष्ठान पर क्लास लेने लगे थे. कालेज के धर्मशास्त्र के विद्यार्थियों ने उनकी केवल इस बात का बिरोध किया था.
इस व्यक्ति का दूसरा आरोप है कि- इस संगठन का नाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक सघ है लेकिन राष्ट्र के सभी जाति या धर्म के लोग इसके सदस्य क्यों नहीं है ? तो इसका जबाब ये है कि संघ का स्वयंसेवक बनाने का कोई फार्म वगैरह नहीं भरना पड़ता है और न कोई सदस्य्ता लेनी होती है और न ही इसके लिए कोई विशष योग्यता निर्धारित है.
खुले पार्क में संघ की शाखा लगती है जहाँ योग, व्यायाम, खेलकूद और देशभक्ति के गीत होते हैं. कोई भी व्यक्ति इसमें शामिल हो सकता है. जैसे जैसे आप शाखा में जाना नियमित करते हैं और पुराने हो जाते है तथा कोई जिम्मेदारी उठाने की इच्छा प्रकट करते है, तो आपकी योग्यता और समय देने की क्षमता के अनुसार आपको दायित्व दिया जाता है.
Image result for rss में भोजनन आपको संघ में शामिल होने के लिए कोई प्रवेश परीक्षा देनी होती है और न ही आपको संघ को छोड़ने के लिए कोई त्यागपत्र देना होता है. यहाँ आप केवल स्वयं की इच्छा से सेवा करते हैं और स्वयं की इच्छा न होने पर संघ में जाना बंद कर देते है और सेवामुक्त हो जाते है. इसलिए संघ में रहना और छोड़ना जैसी बात भी बेबुनियाद है.
अब इनकी मुख्य बात पर आते हैं जिसके कारण ये संघ को छोड़ने का दावा कर रहे हैं. इनका कहना है कि - 1991 में जब राजस्थान में बीजेपी की सरकार थी तो इनके शहर में राम मंदिर के समर्थन में यात्रा निकाली गई थी. प्रशासन ने इस यात्रा को मस्जिद से दूर या नमाज के बाद वहां से निकालने को कहा लेकिन ये उसे जबरन मस्जिद के पास लेकर गए.
यहाँ मैं इनके ही शब्दों पर ध्यान दिलाना चाहता हूँ. इनका कहना है कि-
प्रशासन का कहना था कि यात्रा को मस्जिद के नीचे से न निकालें या नमाज के बाद निकाले लेकिन हमने कहा कि - एक तो हमारी सरकार है और ऊपर से गुलमंडी क्या पापिस्तान में है, हम तो मस्जिद के पास से ही निकलेंगे और नमाज के समय में ही निकलेंगे.
इससे पता चलता है कि - भाजपा की सरकार कोई टकराव नहीं चाहती थी जबकि इसके जैसे व्यक्ति जानबूझकर लोगों को भड़काकर मस्जिद के पास ले गए. वहां यात्रा पर पथराव हुआ और गोली चली जिसमे दो हिन्दू मारे गये. इसी वीडियों में वो ये दावा भी कर रहा है कि - उसके पिता कांग्रेसी हैं और आरएसएस के कट्टर बिरोधी है.
वह कट्टर आरएसएस बिरोधी परिवार का लड़का जानबूझ कर संघ में शामिल हुआ और उस दिन की रैली में लोगों को भड़काकर जानबूझकर नमाज के टाइम पर मस्जिद के पास लेकर गया और वहां रैली पर पथराव और गोली बाजी हुई. जाहिर सी बात है कि ये इसी की साजिश थी, क्योंकि यात्रा तो मस्जिद के पास से निकलनी ही नहीं थी.
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इनका आखिरी आरोप है जातिवाद और छुआछूत को लेकर. इनका खुद का कहना है कि - जब इन्होने कुछ लोगों को अपने घर भोजन पर आमंत्रित किया तो संघ के स्वयंसेवक "नन्द लाल"जी ने कहा कि - हम तो आपके यहाँ एक थाली में भी खा लेंगे लेकिन जो बाहर से साधू संत आये हैं उनको आपके यहाँ खाना कहने में दिक्कत हो सकती है.
तो इसमें कौन सी गलत बात कही है ? संघ के स्वयंसेवक जातिवाद और छुआछूत को दूर करने का प्रयास कर रहे हैं. साथ भोजन करते और साथ में शिविरों में रहते हैं लेकिन बड़े-बड़े साधुसंतों को बदलने का प्रयास नहीं करते है. जैसे मैं अपने बच्चों को तो जातिवाद से दूर रहने को कहता हूँ लेकिन अपने दादाजी को थोड़े ही मना कर सकता था.
ये खुद कह रहे हैं कि- जब पिताजी ने कहा कि- वो साधू संत हमारे घर में नही खाएंगे तो मैंने पिताजी से कहा कि - आप संघ को जानते नहीं है, हम जातिवाद को नहीं मानते हैं हम तो सबके यहाँ जाते हैं और सब के यहाँ खाते हैं. इसका मतलब ये भी 5 साल तक सभी के यहाँ आते / जाते और खाते / खिलाते रहे होंगे और कभी भेदभाव नहीं देखा होगा.
अब अगर कोई साधू संत इन बातों से परहेज भी करता है तो इसके लिए संघ जिम्मेदार नहीं है. संघ तो केवल सामजिक बुराइयों को दूर करने का प्रयास कर रहा है जिसमे काफी हद तक सफल भी हुआ है. ये खुद कह रहे हैं कि- संघ के स्वयं सेवक को इसके साथ खाना खाने पर ऐतराज नहीं था. अब साधू - संत तो संघ के स्वयंसेवक नहीं है न.
आखिर में इनका ये कहना कि - इनके घर से आया हुआ खाना बीच चौराहे पर फेंक दिया गया था और इसका जबाब भी खुद ही दे रहे हैं कि- उन्होंने जब ये पूंछा कि खाना चौराहे पर क्यों फेंका, तो उनको बताया गया कि - जीप के टर्न लेते समय जीप के पीछे बैठे व्यक्ति के हाथ से गिर गया. अब इस दुर्घटना को लेकर प्रपंच करना कांग्रेसी का ही काम है.
Image result for rss में भोजनजो लोग संघ के बारे में नहीं जानते हैं उनको बताना चाहता हूँ कि- संघ के कार्यक्रमों में भोजन व्यवस्था कैसे होती है. 200 / 400 लोगों की गैदरिंग हो या कोई शिविर लगा हो तो स्वयंसेवकों से आग्रह किया जाता है कि- अपने घर से दो लोगों का भोजन लेकर कार्यक्रम स्थल पर भेजें. कुछ लोगों की ड्यूटी लगा दी जाती है कि वो घर जाकर इकठ्ठा कर ले.
उन पैकट पर न कोई नाम लिखा होता है और न कोई ऐसा चिन्ह लगा होता है जिससे पता चले कि - कौन सा पैकेट किस घर से आया है. उन पैकेट को खोलकर एक साथ मिला दिया जाता है. अब किस के हिस्से में किसके घर का आया खाना मिला होगा ये कोई बता भी नहीं सकता है. इसलिए ऐसे झूठे और प्रपंचियों से जरूर बचकर रहें.