भारत के ऋषि मुनियों ने हमेशा स्वछता और पवित्रता को महत्त्व दिया और इसे दैनिक जीवन में प्रयोग करने को कहा. मगर अपने आपको प्रगतिवादी कहने वाले तथाकथित आधुनिक लोग हमारी परम्पराओं को रूढ़िया कहकर धिक्कारते थे. आज जब कोरोना वायरस मौत बनकर सर पर मंडरा रहा है तो इनको समझ आया है कि- हमें क्वारेंटाईन होना चाहिये.
भारतीय संस्कृति में एक शब्द इस्तेमाल होता है "सूतक" इसका पर्यायवाची किसी अन्य भाषा में नहीं है क्योंकि कहीं और "सूतक" मनाया ही नहीं जाता. कोई व्यक्ति ऐसा कोई भी कार्य करता है, जिसमे उसकेे विषाणुओं के संपर्क में आने की संभावना हो, तो जबतक वह व्यक्ति पूरी तरह शुद्ध न हो जाए तब तक वह सूतक (क्वारेंटाईन) में रहता है.
हमारे यहाँ जब किसी बच्चे का जन्म होता है तो कुछ दिन की "क्वारेंटाईन"(सूतक) होती है. जच्चा - बच्चा को अलग कमरे में रख दिया जाता है. उनको क्वारेंटाईन कर दिया जाता है जिससे न तो कोई बाहरी वायरस नवजात को नुकशान पहुंचाय और न ही बच्चे के जन्म की प्रिक्रिया में निकले अपशिष्टों में उत्पन्न वायरस बाहरी लोगों को कोई नुकशान पहुंचाए.
हम जानते थे क़ि- मृतक के शरीर से अनेको वैक्टीरिया और वायरस रिलीज होते हैं. इसलिए मृतक का दाह संस्कार कर पार्थिव शरीर को पूरी तरह से नष्ट कर देते थे. इसके साथ की मृतक का परिवार "क्वारेंटाईन" में चला जाता था. जब तक शुद्धिकरण न हो जाए तब तक बाहरी लोग उन्हें छूने से परहेज करते है और कोई उनके घर में कुछ खाता पीता भी नहीं है.
सनातनी लोग जब किसी की शवयात्रा में जाते हैं, तो आज भी वे घर के बाहर ही नहाते हैं और कपडे बदलते है. जब तक शुद्ध न हो जाए तब तक अपने घर के भीतर प्रवेश नहीं करते है और न ही अपने परिजनों को स्पर्श करते हैं. लेकिन जानवरों की तरह आपस में चिपकने वाले विदेशी म्लेच्छ हमें जाहिल और रूढ़िवादी बताते थे
जिस व्यक्ति की मृत्यु होती है, उसके उपयोग किये गए, सारे रजाई-गद्दे चादर तक ‘‘सूतक’’ मानकर बाहर फेंक देते हैं. मृतक के परिजन, जो सबसे ज्यादा देर तक शव के साथ रहते हैं वे अपना सर मुंडा लेते हैं, ताकि घर से बाहर जाने पर कोई बाहरी व्यक्ति देखते ही समझ जाए और थोड़ा दूर रहकर बात करे , गले मिलने या छूने का प्रयास न करे.
मंदिर आदि जैसे सार्वजनिक स्थल पर जाने वालों के लिए नियम बनाया कि - जिसके घर बच्चे का जन्म हुआ है या जिसके घर किसी की मृत्यु हुई है वो कुछ दिनों तक मंदिर न जाए. इसके अलावा कोई भी बिना स्नान के मंदिर न आये, रजस्वला स्त्रियां मंदिर न जाए. कोई भी अशुद्ध खान पान या आचरण किया है तो शुद्ध होने से पहले मंदिर न जाए.
सूर्ग्रगृहण और चन्द्रग्रहण के सूतक काल में भोजन नहीं करते. उस समय मंदिर बंद कर दिए जाते है. ग्रहण का सूतककाल समाप्त हो जाने के बाद मंदिरों की धुलाई की जाती है. उसके बाद ही मंदिर को श्रद्धालुओं के लिए खोला जाता है. मल - मूत्र विसर्जन के बाद जब तक अच्छी तरह से हाथ न धो ले तब तक हम क्वारेंटाईन में रहते हैं.
केवल इतना ही नहीं , हम ध्वनि तरंगों का महत्व भी जानते थे और इसी लिए मंदिर में शंख और घंटो को बजाने का नियम बनाया. प्रातःकाल और सायंकाल सभी मंदिरों में एक साथ शंखनाद और घंटों की आवाज होने से, उनसे निकली साउंड वेव्स से सूक्ष्म विषाणु नष्ट हो जाते हैं. मगर तथाकथित आधुनिक लोगों को यह पाखंड लगता है.
हम नियमित हवन कर वातावरण को शुद्ध करने वाले लोग है. हम केवल आग ही नहीं जलाते बल्कि शुद्ध लकड़ी (समिधा) तथा शुद्ध सामिग्री और शुद्ध घी का भी ध्यान रखते है. कीटाणु नाशक सुगन्धित पदार्थों को उपयोग करने के पीछे यही कारण है. घर में हर रोज हवन नहीं कर सकते इसलिए प्रतिदिन दो बार आरती और धूप जलाने का नियम बनाया.
हमने भोजन की शुद्धता को महत्व दिया, बनाने से लेकर खाने तक शुद्धता का ध्यान रखा. भोजन करने के पहले अच्छी तरह हाथ मुँह धोते हैं. सभी लोग अलग अलग बर्तन में भोजन करते हैं. कोई किसी का जूठा नहीं खाता है. थाली में भोजन नहीं छोड़ते. अगर थाली में कभी बच भी जाए तो उसे इधर उधर फेंकने के बाजय पालतू पशुओं को खिला देते हैं.
जूते / चप्पल बाहर उतारना, हाथ पैर धोने के बाद घर में प्रवेश करना, नियमित नहाना और कभी कभी नहाने के पानी मे नीम के पत्ते डालना, आदि यह सब शुद्धिकर ही था कोई पाखंड नहीं. हम हमेशा एक दूसरे को छूने से बचते थे. जो लोग बात बात चिपकने की कोशिश करते हैं उनके यह छुआछूत लगता था. पर आज वे क्वारेंटाईन कर रहे हैं.
हम नवबर्ष का स्वागत नौ दिन माता की पूजा से से करते है. घर की साफ़ सफाई करते हैं, हवन करते है, गाय के गोबर के उपले जलाते हैं, कपूर, लौंग, आदि की आहुति देकर वातावरण को शुद्ध करते हैं. 6 माह बाद इस प्रिक्रिया को फिर से दोहराते है. जबकि वो तथाकथित आधुनिक लोग मांस मदिरा का सेवन कर हंगामा करके अपना नवबर्ष मनाते हैं.
हम अगर प्रतिदिन नहाते है, प्रतिदिन कपडे बदलते है, शरीर और घर को शुद्ध रखते है, जबरन हर किसी के गले पड़ने से बचते है, आदि तो इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि- हम जाहिल, दकियानूसी और गंवार है बल्कि हम सुसंस्कृत, समझदार, अतिविकसित महान संस्कृति को मानने वाले हैं. हम अतिसूक्ष्म विज्ञान को समझते हैं आत्मसात करते हैं.
हम उन अतिसूक्ष्म जीवाणुओं का महत्व जानते है जो हमारे शरीर पर प्रभाव डालते हैं. आज हमें गर्व होना चाहिऐ हम ऐसी संस्कृति में जन्में हैं जहॉ ‘‘सूतक’’ अर्थात "क्वारेंटाईन" को हजारों साल से अपनाया जा रहा है. यह हमारी प्राचीन जीवन शैली हैं, हम उन म्लेच्छों की तरह आज किसी कोरोना वायरस के भय से "क्वारेंटाईन" नहीं हो रहे हैं.



