ऐसे में गुरु तेग बहादुर के पुत्र, गुरु गोविन्द सिंह ने मुग़लिया अत्याचार के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष का आव्हान किया और खालसा पंथ की स्थापना की. मुग़लों के अत्याचार का बदला लेने के लिए जोशीले युवा इस खालसा पंथ में शामिल हो गये. ज्यादातर हिन्दू परिवारों ने अपना बड़ा बेटा गुरु गोविन्द सिंह के ख़ालसा पंथ को समर्पित कर दिया.
गुरु गोविन्द सिह पर नियंत्रण करने के लिए औरंगजेब ने 10 लाख की फ़ौज आननदपुर साहब भेजी. फ़ौज में पंजाब / हरियाणा / दिल्ली की मुस्लिम रियासतों के सैनिक थे, जिनमे सरहिंद, मलेरकोटला, लाहौर, आदि प्रमुख थे. मुग़ल सैनिको ने 6 महीने तक घेरा डाले रखा. 21 दिसम्बर 1705 बरसात की सर्द रात में गुरु गोविन्द सिंह ने आनंदपुर साहब को छोड़ दिया
सरसा नदी पार कर गुरु गोविन्द सिंह चमकौर साहब पहुंचे. चमकौर साहब में बुधि चन्द ने अपनी किलेनुमा गढ़ी गुरु गोविन्द सिंह को समर्पित कर दी. यही पर गुरु गोविन्द सिंह दोनों बड़े साहब जादे बाबा अजीत सिह और बाबा जुझार सिंह ने मुग़ल सैनिको से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए. इस लडाई में मलेरकोटला के नबाब का भाई भी मारा गया .
दूसरी तरफ गुरु गोविन्द सिंह की माता गुजरी और दोनो छोटे साहबजादे (बाबा फ़तेह सिंह और बाबा जोरावर सिंह ) भी बिछड़ गए. कहा जाता है कि गंगू नाम के उनके रसोइये इनाम के लालच में उन्हें सरहन्द के नबाब बजीर खान के हवाले कर दिया. वहां उनको इस्लाम कबूलने को कहा और उनके इंकार करने पर जिन्दा दीवार में चुनवाने का हुक्म सुनाया.
कहा जाता है कि - ये सजा सुनाये जाने पर, मलेरकोटला के नबाब शेर मुहम्मद खान ने कहा था कि - हमारी दुश्मनी इनके पिता से है, मैं जंग का बदला जंग में लूंगा, इन बच्चों को मारकर नहीं. परन्तु शेर मुहम्मद की बात को अन्य सभी नबाबो ने काट दिया और फिर मलेरकोटला का नबाब शेर मुहम्मद खान भी खामोश हो गया.
लेकिन बात को ऐसे बताया जाता है कि - जैसे मलेरकोटला का नबाब कोई बहुत महान इंसान था और इस एक घटना को लेकर आज के सिक्ख, मुसलमानो के सारे अत्याचारों को भूल जाते हैं जबकि हकीकत यह है कि- आनंद पुर साहब को घेरने और चमकौर साहब की गाढ़ी पर हमला करने मलेरकोटला की फ़ौज भी शामिल थी.
शेर मोहम्मद की फ़ौज ने गुरु गोविन्द सिंह का मुक्तसर साहब तक पीछा किया था. इसके अलावा इस लड़ाई में वीरांगना बीबीअनूप कौर का नाम भी आता है. 21 दिसम्बर 1705 की बरसाती रात को जब गुरु गोविन्द जी ने आनंदपुर साहब को छोड़ा तो माता गुजरी और छोटे साहबजादों की सुरक्षा का दायित्व बीबी अनूप कौर ने लिया था.
बीबी अनूप कौर बहुत ही सुन्दर एवं बहादुर युवती थी. उन्होंने स्वेच्छा से माता गुजरी की सुरक्षा की सेवा ली थी. परन्तु सरसा नदी पार करते करते वे सब आपस में बिछड़ गए. बीबी अनुप कौर कौर के साथ दो तीन और सिक्ख थे. उनको पता लगा कि - चमकौर साहब में गुरु गोविन्द सिंह और बड़े साहबजादे हैं और वहां लड़ाई हो रही है तो वे चमकौर साहब की तरफ चल पड़े.
रास्ते में उनका सामना शेर मोहम्मद खान की टुकड़ी से हुआ. इन्होने बहादुरी से मुकाबला किया और अनेकों मुस्लिम सैनको को मार गिराया. लेकिन सैकड़ों सैनिको का चार लोग कब तक मुकाबला करते, बीबी अनूप कौर घायल हो गई और उनके साथी सिख बलिदान हो गए. बीबी अनूप कौर की सुंदरता को देखकर शेर मोहम्मद ने मोहित हो गया.
चमकौर साहब की जीत के बाद मुग़ल सैनिक चमकौर, माछीबाड़ा, मोरिंडा आदि से अनेकों लड़कियों को गुलाम बनाकर लाये थे और उनको नबाबों के हवाले कर दिया था. उनका धर्म परिवर्तन कराकर उनको अपने साथियों में इनाम स्वरूप बाँट दिया. इनमे सबसे खूबसूरत युवती, वीरांगना बीबी अनूप कौर पर शेर मोहम्मद का दिल आ गया.
नबाब उनको अपने हरम में रखना चाहता था. उसने उनसे इस्लाम कबूलने को कहा लेकिन बीबी अनूप कौर ने इंकार कर दिया. तब नबाब ने उन्हें हरम के एक कमरे में कैद कर दिया. एक दिन मौका पाकर बीबी अनूप कौर ने अपने सीने में खंजर मारकर आत्महत्या कर ली. नबाब ने इसे अपनी शिकस्त मानते हुए, उन्हें मुस्लिमों की तरह दफना दिया.
कुछ समय बाद गुरु गोविन्द सिंह के आदेश पर, नांदेड़ से आकर बाबा बन्दा बहादुर ने पंजाब पर हमला किया और उनकी सेना ने चप्पड़ चिड़ी की जंग में सरहन्द के नबाब बजीर खान को मार गिराया. उसके बाद बन्दा बहादुर ने मलेरकोटला को भी जीत लिया. भाई आली सिंह और भाई माली सिंह ने बन्दा बहादुर को बीबी अनूप कौर के बलिदान के बारे में बयाया,
बीबी अनूप कौर के बारे में जानकर बन्दा बहादुर अत्यंन्त भाभुक हो गए. उन्होंने कहा हम उनके लिए कुछ और तो नहीं कर सकते लेकिन बीबी अनूप कौर का पार्थिव शरीर कब्र से निकालकर उनका दाह संस्कार अवश्य करेंगे. बन्दा बहादुर ने कब्रिस्तान को खुदवाकर बीबी अनूप कौर के पार्थिव शरीर के अबशेषों को निकाला और उनका विधिवत अग्नि संस्कार किया.
और हाँ, बन्दा सिंह बहादुर ने मलेरकोटला को तहशनहस करने का अपना इरादा जो बदल दिया था उसकी मुख्य बजह थी मलेरकोटला के सेठ किशनचंद द्वारा उनकी मदद करना. बन्दा बहादुर के मलेरकोटला प्रवास में सेठ किशन चन्द उनका बहुत साथ दिया था तथा अलग से 5000 रूपय शुक्राने में दिए थे कि - मलेरकोटला को नष्ट न करें.
मलेरकोटला वालों से संघर्ष आगे भी ख़त्म नहीं हुआ. 1762 में अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब पर आक्रमण किया उस समय मलेरकोटला के नबाब भीखम खान और सरहन्द के नबाब जैनखान ने अब्दाली का साथ दिया. 5 फरवरी 1762 को मलेरकोटला के पास "कुप्प" में अब्दाली, भीखम खान और जैनखान की सेनाओ ने सिक्खों को तीन तरफ से घेर लिया.
सिक्ख बहुत बहुत बहादुरी से लड़े लेकिन तीन विशाल सेनाओ से भला कब तक लड़ते ? इस लड़ाई में संयुक्त मुस्लिम सेनाओ ने 35 हजार सिक्खों की हत्या की. औरतों और बच्चों को भी नहीं छोड़ा. बच्चों को काटकर उनके अंगों की माला बनाकर उनकी माताओं के गले में डालने का बहशियाना काम किया. इस लड़ाई को बड़ा घल्लूघारा कहा जाता है.
इस घटना के बाद एक सदी और बीत जाने के बाद भी मलेरकोटला वालों का जुल्म ख़त्म नहीं हुआ. तब तक भारत पर अंग्रेजों का राज हो चुका था. 1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम असफल हो चुका था और ज्यादातर रियासतों के राजाओं और नबाबों ने अंग्रेजों को अपना भाग्य विधाता मान लिया था. ऐसे में नामधारी सिक्ख अपने स्तर पर अंग्रेजों का विरोध कर रहे थे.
नामधारी सिक्खों के केंद्र भैणी साहब में मकर संक्रांति का पर्व बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है. 1872 में मकर संक्रांति के दिन पर्व में शामिल होने के लिए दूर दूर से भक्त जा रहे थे. ऐसे में गौ-भक्तों को दुखी करने के लिए, मुस्लिम बहुल मलेरकोटला के मुसलमानों ने खुलेआम सड़क के किनारे गौ ह्त्या करना शुरू कर दिया, जिसका अंग्रेजों का भी समर्थन था.
हिन्दू सिक्ख इसको देखकर कुछ नहीं कर पा रहे थे और मन मसोस कर रह जा रहे थे. ऐसे में एक नामधारी सिक्ख गुरुमुख सिंह के नेत्रत्व में, भैणी साहब को जाने वाला कुछ कूकों का एक जत्था उधर से गुजरा. उन्होने मुसलमानों से खुलेआम ऐसा न करने को कहा तो वे लोग कूकों से झगड़ने लगा. कूकों ने भी बहादुरी से उनका मुकाबला किया.
निहत्थे तीर्थयात्री, लड़ने को तैयार बैठे हथियार बंद आतंकियों का कब तक मुकाबला करते. ज्यादातर कूके उस संघर्ष में मारे गए. कुछ लोग किसी तरह जान बचाकर भैणीसाहब पहुंचे. तब 15 जनवरी 1872 कोें गुरु रामसिंह के आदेश पर, हीरा सिंह और लहिणा सिंह के नेत्रत्व में 80 कूकों का एक जत्था हथियारों के साथ मलेरकोटला को रवाना हुआ.
मलेरकोटला में हुए उस संघर्ष में दोनों और के लोग मारे गए. लेकिन अंग्रेज पुलिस ने गौहत्यारे मुसलमानों का साथ दिया और कूकों को गिरफ्तार कर लिया. अंग्रेज जिलाधीश कोवन ने बिना अदालत में मुकदमा चलाये उनको प्राणदंड देने का ऐलान कर दिया. 17 और 18 जनवरी 1872 मलेरकोटला में 66 नामधारी सिक्खों को तोप से उड़ा दिया.